श्रीराम भक्त - रविदास : संत रविदास गाथा
आज से 600 वर्ष पहले काशी के ग्रामीण क्षेत्रों में एक क्रान्ति आई थी | यह क्रान्ति थी राम भक्ति की | गाँव गाँव से राम भक्तों ने “जय श्री राम “ का जय-घोष लगाना शुरू किया था | प्रभु भक्तों की संख्या बढ़ रही थी वो भी जात-पात के बन्धनों से मुक्त होकर | "श्री राम हमारे हैं, वही तो शबरी और केवट के थे, फिर उनकी भक्ति और पूजा का अधिकार हमसे कौन छीन सकता है |" गाँव गाँव गली गली में जय श्रीराम की गूँज थी | कोई खेतों में काम करने वाले किसान, मिटटी के घड़े बनाने वाले कुम्हार, चमड़े के जुते- चप्पल बनाने वाले चमार, शमशान में अंत्येष्टि करवाने वाले चंडाल, दूध का व्यापार करने वाले ग्वाला, कपड़ों के व्यापारी, मूर्तिकार, राजा के राजपूत सैनिक, और पूजा पाठ करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण भी इस भक्ति-क्रान्ति से अछूते नहीं रहे | सब एक एक कर के जुड़ते गए और 'जय श्री राम' जय श्री राम' का जय-घोष होने लगा |
ईस जय घोष का शंखनाद पंडित शारदानन्द के पाठशाला के एक छात्र एवं उनके पुत्र के परम मित्र रविदास ने किया था | जब पहली बार पंडित शारदा नन्द ने अपने पुत्र को एक निम्न जाती के बालक के साथ खेलते हुए देखा तब वो बड़े नाराज हुए लेकिन जैसे ही एक दिन रविदास उनके सामने आये तब महाज्ञानी पंडित शारदानंद ने रविदास के भीतर छुपे आध्यात्मिक ज्ञान के महासागर को देख लिया और समझ गए कि इस भव-सागर में आध्यात्मिक क्रान्ति की लहरे उठने वाली हैं | और, श्री संतोक दास और श्रीमती कालसा देवी के पुत्र रविदास को अपनी पाठशाला में प्रवेश दे दिया | पंडित शारदानंद का विरोध पुरे ब्राह्मण समाज ने किया लेकिन पंडित शारदानंद अपने निर्णय पर अडिग रहे | एक दिन संध्या के समय खेलते खेलते उनके पुत्र की मृत्यु हो गई | लेकिन पंडी जी के पुत्र ने अपने परम मित्र रविदास को पुनः प्रातः खेल शुरू करने का वचन दिया था | और वचन के अनुसार सुबह सुबह रविदास पंडित शारदानंद के घर अपने मित्र के साथ खेलने कूदने आ गए | लेकिन घर में चारो और उदासी छायी हुई थी दुःख का वातावरण था | माता – पिता दोनों पुत्र वियोग में रो रहे थे | तब बालक रविदास ने पंडी जी से पूछा – “ गुरु जी मेरा मित्र कहाँ है ? उसने मुझे प्रातः लुक्का-छिपी खेलने के लिए बुलाया था” तब पंडित शारदानन्द ने रविदास से कहा “ रविदास, तेरा मित्र अब इस दुनिया में नहीं रहा, उसकी मृत्यु हो चुकी है “ | रविदास ने कहा "नहीं मुझे तो अपने मित्र के साथ खेलना है | बुलाओ उसे ! बताओ मुझे ! कहाँ है मेरा मित्र ?" पंडित शारदानन्द रविदास को अपने पुत्र के शव के पास ले जाते हैं | शव को देखर कर रविदास अपने मित्र को उठाने लगते हैं “ उठो मित्र ! उठो ! देखो तुमने मुझे बुलाया था मैं आ गया हूँ, हम दोनों अब खेलेंगे |” और रविदास की आवाज सुनकर पंडित शारदानन्द का पुत्र उठ खडा हुआ | पंडी जी ने रविदास को अपने गले लगा लिया और कहा आज मेरे घर मेरे श्रीराम आ गए | 'जय श्री-राम' का जय घोष चहूँ-दिशा में गूंजने लगा |
काशी में श्री राम जी के मंदिर के सामने भक्तिमयी लोना देवी श्री राम प्रभु के दर्शन के लिए व्याकुल खड़ी थी लेकिन मंदिर के पुजारी ने उन्हें छोटी जाती का बताकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया, और देवी लोना रोने लगीं | भगवान् के दर्शन हेतु इस प्रकार रोते हुए देख रविदास जी ने देवी लोना से पूछा “ देवी आप क्यों रो रही है ?” तब देवी लोना ने अपनी व्यथा रविदास जी को सुनाई | और तब रविदास जी ने कहा चलो मैं तुम्हे भगवान् श्री राम के दर्शन कराता हूँ | संत रविदास लोना को अपने घर के मंदिर में ले गए और प्रभु श्री राम जी का दर्शन करवाया | प्रभु श्रीराम की भक्ति ने देवी लोना और रविदास जी को प्रणय-सुत्र में बाँध दिया |
और उनकी कुटिया से ही जय श्रीराम का उद्घोष हुआ | और इस उद्घोष की ध्वनी चारों दिशाओं में गूंजने लगी | कई भक्तिमयी आत्माएं जात-पात के बंधन को तोड़ते हुए संत-रविदास के अभियान में जुड़ गए | कई राजा महाराजा भी उनके अनुयाई बने | लेकिन इस प्रकार पूजा पाठ करते हुए देखकर काशी के कुछ पंडित-पुजारियों को अच्छा नहीं लगा | वो अपनी शिकायत लेकर काशी-नरेश के पास पहुँच गए और, और संत रविदास के विरुद्ध कार्यवाही करने की मांग की | राजा ने संत रविदास को राज सभा में बुलाया और, तब आध्यात्म भक्ति को लेकर रविदास जी का पुजारियों से शास्त्रार्थ हुआ | काशी नरेश को संत रविदास की हर बात अच्छी लगी लेकिन साथ ही वो ब्राह्मणों के विरुद्ध भी नहीं जाना चाहते थे | अतः उन्होंने घोसना कर दी की कल गंगा तट पर सभी भगवान् की मूर्ति लेकर आयें, जिसकी मूर्ति डूबेगी नहीं और तैर जायेगी वो भगवान् का सच्चा भक्त होगा | अगले दिन सभी अपने भगवान् की मूर्ति लेकर आये | पुजारियों ने अपनी मूर्ति पर सूत लपेट दिया जिससे वह मूर्ति डूबे ना | और संत रविदास ने तो अपने मंदिर के भगवान् श्री राम जी की मूर्ति ले आये जिनका वजन चालीस किलो के बराबर था | सबने पारी –पारी अपनी मूर्तियाँ गंगा जी में डाली | सबकी मूर्तियाँ डूबते गई लेकिन जब अंत में संत रविदास ने अपने भगवान् श्रीराम जी की मूर्ति डाली तब वह नहीं डूबी और तैरने लगी | फिर से चारो और “जय श्री राम” का जय-घोष होने लगा |
जात-पात के बंधनों से मुक्त होकर सभी प्रभु के भक्ति में जुड़ने लगे |
जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात |
रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाती न जात ||
जात पात पूछे नहीं कोए, हरी को भजे सो हरी का होए ||
रघुवर राऊर इहे बड़ाई, निदरी, गनी, आदर गरीब पर
करत कृपा अधिकाई || (गो. तुलसीदास)
संत रविदास का यह अभियान हिन्दू-एकता का ज्वलंत उदाहरण है | संत रविदास के इस अभियान से हर जाती के लोग बिना किसी भेद भाव के श्रीराम-भक्ति से जुड़ते गए | आज पुनः राष्ट्र को ऐसे अभियान की आवश्यकता है |
"जय श्री राम"
लेखक:- श्री श्री मनीष देव
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