Tuesday, 6 November 2018

भूत-चतुर्दशी एवं हेलोवीन





भूत-चतुर्दशी एवं हेलोवीन


पाश्चात्य देशो में मनाया जाने वाला एक त्यौहार हेलोवीन है, जिसकी  विचारधारा भारतीय परिपाटी में मनाये जाने वाले त्योहारों से काफी मिलती जुलती है | दीपावली के ठीक एक दिन पहले मनाये जाने वाली छोटी दिवाली जो कि नरक-चतुर्दशी, भूत-चतुर्दशी एवं यम-पूजा के नाम से भी जानी जाति है, जिसमे बिलकुल हेलोवीन जैसी मान्यता है | पाश्चात्य देशो में मनाये जाने वाला यह हेलोवीन त्यौहार बहुत ही पुराना है | यह ईसापूर्व से मनाया जाने वाला त्यौहार है, जिसमें यह माना जाता है कि हेलोवीन के दिन मरे हुए लोग अपने कब्र से जाग जाते हैं | और अपने घर वापिस आकर अपने घर वालो व् रिश्तेदारों को डराते एवं परेशान करते हैं | अतः इस दिन लोग उनसे बचने और भूत प्रेतों से स्वयं को बचाने के लिए वो भूतिया डरावने कपडे पहनते हैं, और भूतों जैसा श्रृंगार कर लेते हैं | साथ ही घर के बहार रोशनी भी करते हैं मोमबत्तिया जला कर | भूत-चतुर्दशी की तरह यह त्यौहार भी प्रत्येक वर्ष अक्टूबर महीने के अंत में बिलकुल दीपावली  के आस पास ही मनाया जाता है | 



हेलोवीन की भाँती भारतीय परिवेश में भूत-चतुर्दशी में भी लगभग यही मान्यता है | भूत-चतुर्दशी की रात भूतों की रात होती है | यहाँ सिर्फ भूतों के आने  की  ही नहीं इस रात को स्वयं मृत्यु दाता यमराज आगमन की रात बताई जाती है | यह मान्यता वैसे एक पौराणिक कथा से सम्बन्ध रखती है | एक समय, मृत्यु के देवता यमराज के यमदूत एक राजा को नरक ले जाने के लिए आये, तब राजा ने यमराज से प्रार्थना कर के कहा "हे यमदेव कृपया आप मुझे और एक वर्ष का समय दें, फिर मैं आपकी इक्षा अनुसार चल पडूंगा " तब यमराज ने कहा "ठीक है राजन मैं तुम्हे एक वर्ष का और समय देता हूँ " | तब राजा ने एक वर्ष तक ऋषि मुनियों के सानिध्य में जाकर तपस्या की और कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के चतुर्दशी को व्रत किया और अपने पापो से मुक्ति प्राप्त कर नरक से बच गए | भारतीय परिवेश में इस कार्तिक मास के कृष्ण चतुर्दशी को यम पूजा की जाती है | माना जाता है कि इस दिन घर के द्वार पर यमदूत आते हैं | कुछ राज्यों में मान्यता है कि भूत प्रेत भी यमदूत के रूप में आते हैं | अतः उनकी पूजा आज के दिन करनी चाहिए और यमदूतों एवं यमराज के सम्मान में घर के द्वार पर पूरब दिशा में खड़े होकर दीप जला कर दीप-दान करना चाहिए | घर से पुराने गैरुपयोगी वस्तुओं को बाहर निकाल देना चाहिए एवं पुरे घर की सफाई करनी चाहिए |




इन दो त्योहारों की एक जैसी मान्यता पुरे विश्व इतिहास में एक ही संस्कृति के  प्रसार की और भी संकेत करता है | इस तरह से और भी कई बाते हैं जो ये प्रमाणित करती हैं कि एक समय में पश्चिमी देशों में समान मान्यता और संस्कृति के लोग रहते थे | अमेरिका कनाडा जैसे देशों में भूत प्रेत  की मान्यता आम जनता में आज भी बहुत व्याप्त है | लेकिन प्रश्न उठता है, फिर इस मान्यता को पाखंड या अन्धविश्वास से कैसे जोड़ दिया जाता है ? बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो प्रेत बाधा से पीड़ित रहते हैं, और कोई डॉक्टर उनकी बीमारी नहीं समझ पाता है | बिना जाने किसी तथ्य को मानना अंधविश्वास ही है | परन्तु बिना अनुसन्धान किये किसी तथ्य को नकार देना भी एक प्रकार का अंधविश्वास ही है | दुनिया उतनी ही नहीं जितना कि मनुष्य इन दो आँखों से देख सकता है | अलग अलग जीवों की आँखे भी अलग अलग हैं और उनके देखने की क्षमता भी अलग अलग ही होती है | बहुत कुछ ऐसा भी है जो इन दो आँखों से नहीं परन्तु अंतर-चक्षु से देखा जा सकता हैं | प्रेतात्मवाद अपने आप में एक बृहत् विषय है | कई वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है और कई इस पर अनुसन्धान करने में लगे हैं | लेकिन इस संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें किसी अनुसन्धान की आवश्यकता नहीं है | उनके अन्दर प्राकृतिक क्षमता होती है भूत-दर्शन की अथवा वो कुछ आध्यात्मिक साधनों से अपने अन्दर ऐसी क्षमता विकसित कर लेते हैं |




आज का आधुनिक विज्ञान इतना तो समझने लगा है की उर्जा कभी नष्ट नहीं होती | फिर मृत्यु के उपरांत जीवन उर्जा कहाँ जाती है ? इस प्रश्न का उत्तर सब प्राप्त नहीं कर पाते | और भूत प्रेत सम्बन्धी बिमारियों एवं पीड़ा का उत्तर मेडिकल डॉक्टर के पास क्यों नहीं होता ? यही ज्वलंत प्रश्न आधुनिक युग में खड़ा है | कई मानते हैं, तो कई नहीं मानते हैं, भूत प्रेतों का अस्तित्व | परन्तु आज के आधुनिक वैज्ञानिक अविष्कारों के युग में भी ऐसी प्रथाएं प्रचलित हो रही हैं | कारण क्या है ? एक तरफ वैज्ञानिक दृष्टिकोण दूसरी तरफ प्रथावादी (orthodox) विचारधारा का प्रसार कैसे हो रहा ? सत्य क्या है क्यों लोग भूत प्रेत जैसी प्रथाओं का अनुसरण कर रहे हैं ? क्यों इस मान्यता का प्रसार हो रहा है ? क्या भौतिक विज्ञान के अविष्कार एवं खोज मनुष्य की समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रहे ?


मनुष्य का प्रकृति एवं अन्य जीवों के साथ एक भावनात्मक सम्बन्ध है | और भाव-जगत में कुछ ऐसे भी जीव हैं जो स्थूल दृष्टि से कदापि दृष्टिगोचर नहीं होते | इस भाव-जगत के विज्ञान को समझने के लिए अंतर्मुखी होने के विज्ञान को समझाना होगा | आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करना होगा जो कि स्थूल भौतिक इन्द्रियों के जगत के परे है |


(इस विषय पर और जानकारी के लिए लेखक से संपर्क कर सकते हैं )

मनीष देव


Saturday, 4 August 2018

क्यों बुद्ध ने धम्म दिया धन नहीं !




महात्मा बुद्ध जिनके माता-पिता के द्वारा दिया  नाम सिद्धार्थ था | जब सिद्धार्थ का जन्म हुआ तब उनके पिता महाराज शुद्धोधन ने प्रसन्न होकर बड़े बड़े विद्वानों, पंडितों एवं ऋषि मुनियों को निमंत्रण दिया | सभी पंडितों एवं ऋषि मुनियों से राजा शुद्धोधन ने विनती करते हुए अपने पुत्र सिद्धार्थ के विषय में भविष्यवाणी करने का आग्रह किया | तब कुछ पंडित विद्वानों ने कहा " हे महाराज आपका पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा "|
किसी अन्य ने कहा " वो सन्यासी भी होगा "|

एक अन्य विद्वान ने कहा " महाराज आपका पुत्र सम्राट होकर भी सन्यासी जीवन ही जियेगा" |
इन्ही ऋषि मुनियों के बीच असित मुनि भी पधारे थे, असित मुनि ने राजा शुद्धोधन से कहा " महाराज, आपका पुत्र गृहत्यागी सन्यासी ही होगा यही इसका भविष्य है, और उसको ऐसा बनने से कोई नहीं रोक पायेगा " | असित मुनि की भविष्यवाणी सुनकर राजा शुद्धोधन भयभीत हो गए | उनको विश्वास था कि असित मुनि की भविष्यवाणी झूठी नहीं हो सकती | लेकिन राजा शुद्धोधन नहीं चाहते थे कि सिद्धार्थ सन्यासी बने |

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को बचपन से ही तमाम सुख सुविधाएँ देनी शुरू कर दी, ताकि सिद्धार्थ को दुःख का स्पर्श ही न हो उसे लगे कि यह संसार और घर-परिवार अत्यंत सुखमय है, यहाँ लेश मात्र भी दुःख नहीं है | और इस प्रकार से सिद्धार्थ दुखो से दूर रहेगा और उसके मन में वैराग्य का ख्याल कभी आयेगा ही नहीं | राजा शुद्धोधन ने अपने राज्य से वृद्धों एवं रोगियों को भी बाहर निकाल दिया ताकि उन्हें देखकर सिद्धार्थ के मन में दुःख का भाव ना पैदा हो और उसे यह संसार दुखमय न लगे |


समय बितने लगा सिद्धार्थ किशोरावस्था से युवा अवस्था  को प्राप्त होने लगे | सिद्धार्थ के मन में आया कि वह अपने राज्य का भ्रमण करें और राज्य की सीमा के बाहर जाकर भी संसार को देखे | सिद्धार्थ ने अपनी यह इक्षा अपने सारथि चन्ना के समक्ष रखी | तब चन्ना ने उत्तर देते हुए कहा "युवराज आप जहाँ जहाँ कहेंगे मैं आपको वहाँ वहाँ ले जाऊँगा |

सिद्धार्थ अपने सारथि के साथ भ्रमण पर निकल गए | मार्ग में उन्हें कुछ व्याधि-ग्रस्त मनुष्य दिखाई दिए | वे सभी अपने रोगों से अत्यंत पीड़ित थे | कोई भयानक ज्वर से ग्रसित था तो कोई दमा से | एक व्यक्ति जिसका पूरा शरीर कोढ़ से पीड़ित था | यह सब देख कर सिद्धार्थ के मन में प्रश्न उठा - क्या किसी का जीवन इतना दुखमय भी हो सकता है ? फिर सिद्धार्थ ने मार्ग में वृद्ध मनुष्यों को देखा जो अत्यंत वृद्धा अवस्था को प्राप्त कर चुके थे | वो अपनी वृद्धा अवस्था से पीड़ित थे और दुःख भोग रहे थे | फिर आगे बढ़ने पर सिद्धार्थ ने मृत व्यक्ति का शव देखा और जिज्ञासा वश चन्ना से पूछा - " चन्ना इस व्यक्ति को क्या हुआ ? लोग इसे काँधे पर उठा कर क्यों ले जा रहे हैं ?" तब चन्ना ने उत्तर देते हुए कहा " युवराज यह व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो चुका है , युवराज! इस जीवन का अंत मृत्यु ही है "| सिद्धार्थ के मन में एक साथ अनेकों प्रश्न उठे - भला यह कैसा अंत है ? क्या इसी का नाम जीवन है ?


सिद्धार्थ इसी प्रकार रोज भ्रमण पर निकल जाते | एक बार उन्होंने डाकुओं के द्वारा लुटे गए गाँव मिले, उस गाँव के लोग बहुत दुखी थे सिद्धार्थ का मन वेदना से भर गया और वो व्याकुल होकर चन्ना से पूछने लगे -" चन्ना इस संसार में तो सब दुखी हैं कोई सुखी नजर नहीं आता | कोई किसी पर अत्याचार कर रहा है तो कोई रोग-व्याधियों से ग्रसित है, कोई वृद्धा अवस्था से पीड़ित है तो कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा है | सिद्धार्थ का मन करुणा से भर गया और सिद्धार्थ ने कहा " चन्ना मुझसे लोगों का दुःख देखा नहीं जा रहा | मैं इनके सारे दुःख दूर करना चाहता हूँ " | राजकुमार सिद्धार्थ ने अपना राज कोष खोल दिया दुखी लोगों के जीवन को सुखी बनाने के लिए | दिन रात दूसरों का दुःख दूर करने में सिद्धार्थ लग गए लेकिन सिद्धार्थ को फिर भी संतोष प्राप्त नहीं हुआ | उन्हें लगने लगा कि " मैं जितना प्रयास करता हूँ इस संसार को दुःख से मुक्त करने में, उतना ही संसार दुखी नजर आता है | ऐसा लगता है जैसे संसार ही दुखमय है" |



एक बार राजकुमार सिद्धार्थ दुखी गरीबों व् दलितों को धन और अन्न वितरण करते हुए काफी दूर वन की ओर निकल गए | वन केसमीप राजकुमार सिद्धार्थ को एक सन्यासी दिखाई दिया जो अपनी बाहरी वेश - भूषा से दरिद्र ही दिखाई दे रहा था परन्तु अन्य दरिद्रों की तरह उसके मुखमंडल पर दुःख के भाव नजर नहीं आ रहे थे | दरिद्र होने के बाद भी उसके मुखड़े पर संतोष और अद्भुत आनंद दिखाई दे रहा था | सिद्धार्थ को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह व्यक्ति दरिद्र होने के बाद भी इतना आनंदित कैसे है ? राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने सारथि चन्ना से पूछा  "चन्ना, यह व्यक्ति कौन है जो सबसे अलग बैठा हुआ है ? यह मुझे अन्न-धन वितरण करते हुए देखकर भी मुझ से धन प्राप्ति की ईक्षा नहीं रखता | दरिद्र होने पर भी यह इतना आनंदित क्यों है ?" चन्ना ने कहा " युवराज, यह सन्यासी है | सन्यासी ऐसे ही रहस्यपूर्ण होते हैं | ये सारी इक्षाओं और कामनाओं का त्याग कर चुके होते हैं | इन्हें किसी वस्तु की कोई आवश्यकता अथवा लालसा नहीं होती | अतः यह दरिद्र होकर भी आपसे कुछ प्राप्त करने की आशा  नहीं रखता "|


सिद्धार्थ ने कहा "चन्ना यह कैसी अवस्था है ? क्या किसी का मन ऐसी अवस्था में भी हो सकता है जहाँ उसे किसी वस्तु की कोई आवश्यकता ही ना रहे | दरिद्र होकर भी उसके चेहरे पर सम्राटों जैसा तेज़ हो जैसे कि इस सन्यासी के मुखमंडल पर है "| चन्ना - " हाँ युवराज ! यह तो आध्यात्मिक ज्ञान का तेज़ है "| सिद्धार्थ ने कहा " अगर कुछ ऐसा है जिससे मनुष्य मन की सारी उथल पुथल दूर हो जाए तो वो मुझे क्यों नहीं प्राप्त इन सभी दरिद्र,  दलितों और गरीबों को क्यों नहीं प्राप्त ? चन्ना! मैं स्वयम इस महान आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर सामान्य जन-मानस को उपलब्ध कराऊंगा | और फिर प्रत्येक व्यक्ति का दुःख भी दूर होगा |  दुःख का मूल कारण मनुष्य का विकृत मन ही है | धनवान हों अथवा निर्धन सब दुखी हैं सभी व्यथित हैं | दुःख का मूल करण मनुष्य का मन ही है | जब मन सम्यक अवस्था को प्राप्त होगा तब सारे दुःख क्लेश दूर हो जायेंगे "|


सिद्धार्थ ने धन-अन्न वितरण कर के बहुत देख लिया फिर भी दुखियों का दुःख दूर होता हुआ नजर नहीं आया | सिद्धार्थ अपना घर-परिवार त्याग कर आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में वनवासी हो गये | वन में उच्च कोटि के ऋषि मुनियों से मिल कर अध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त किया फिर अपनी साधना से सम्यक अवस्था को प्राप्त कर सामान्य जन-मानस हेतु अष्टांगिक मार्ग को प्रदान किया | जिस अष्टांगिक मार्ग पर चल कर प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंतरिक दरिद्रता को दूर कर सकता है | सिद्धार्थ अपने इसी महान ज्ञान के कारण 'बुद्ध' कहलाये |
बहुत अन्न-धन बांटने पर भी जब समस्याओं का समाधान नहीं मिला तब बुद्ध ने ही अपना ज्ञान दे लोगों का दुःख दूर किया | सत्य तो यही है कि समाज में व्याप्त भेद-भाव की भावनाए, भ्रष्टाचार, दुराचार, यह सब आध्यात्मिकता से ही दूर हो सकती है | अतः बुद्ध ने मानव समाज को धम्म का दान दिया |

                                                -----श्री मनीष देव






Sunday, 11 February 2018

महाशिवरात्रि – आध्यात्मिक रहस्य



महाशिवरात्रि – आध्यात्मिक रहस्य 




महाशिवरात्रि का पावन पर्व श्री शिव पार्वती मिलन का पुण्य दिवस है | यह वही पावन पुनीत रात्री है, जिस रात्री शिव-पार्वती विवाह संपन्न हुआ था | शिव-पार्वती विवाह कोई साधारण घटना नहीं थी | अगर शास्त्रों में वर्णित कथाओं का अनुसरण करें तो इस विवाह-कार्य को संपन्न करने के लिए देवी-देवता, ब्रह्मा, विष्णु, ग्रह, नक्षत्र और सप्त ऋषियों ने भी सतत प्रयास किया था | संसार में तो विवाह, मनुष्य कामनाओं के वशीभूत ही करता है, परन्तु श्री शिव-पार्वती विवाह के पहले कामनाओं के देवता कामदेव ही भष्म हो जाते हैं | अतः महाशिवरात्रि का महापर्व अनेको रहस्यमयी ज्ञान-रत्नों को अपने भीतर समेटे हुए है | यह परम कल्याणमयी रात्री है, यह साधकों की सिद्धि की रात्री है | 





श्री शिव-पार्वती मिलन के आध्यात्मिक रहस्य को प्रगट करते हुए, श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान् शंकर की स्तुतिगान करते हुए लिखते हैं :- 



भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ | 



याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमिश्वरम || 



अर्थात- भवानी जी श्रद्धा स्वरुप हैं और शिव जी विश्वास स्वरुप हैं, दोनों ह्रदय में ही वास करते हैं | बिना श्रद्धा और विश्वास के बड़े बड़े सिद्ध जन भी ह्रदय में स्थित ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकते | 



भगवान् शिव और माता-पार्वती का मिलन श्रद्धा और विश्वास का मिलन है | अब यहाँ एक प्रश्न आप पाठकों के मन में आकार ले सकता है ! क्या श्रद्धा और विश्वास दोनों भिन्न भिन्न हैं ? और, दोनों के मिलन का क्या तात्पर्य एवं प्रयोजन है ? 



श्रद्धा और विश्वास में वही अंतर है जो सरिता और सागर में है | सरिता और सागर दोनों ही जल को धारण करते हैं, परन्तु सरिता भटकती है और सागर स्थिर रहता है | सरिता का भटकाव तभी तक है जब तक वह सागर में मिल नहीं जाती | इसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास है | श्रद्धा भटकती है और विश्वास दृढ होता है | श्रद्धा का आधार ‘प्रेम-समर्पण भाव’ है तो विश्वास का आधार ‘ज्ञान’ है | 



एक समय माता-पार्वती जी भगवान् भोले नाथ से जन्म-मृत्यु का रहस्य पूछती हैं, तब भगवान् शिव-शंकर माता पार्वती से कहते हैं “हे पार्वती तुम्हारा जन्म मरण होता है, परन्तु मैं अजन्मा हूँ |” तब देवी भगवान् के वचनों पर आश्चर्य करते हुए कहती है “हे प्रभो ! यह कैसी विडंबना है, मैं जन्म-मृत्यु के वशीभूत और आप अजन्मे हैं ?” भगवान् शिव-शंकर ने कहा “बिना शिव-तत्व का ज्ञान हुए कोई भी इस जन्म-मरण के काल-चक्र से मुक्त नहीं हो सकता |” तब भगवान् शिव ने देवी को अमरनाथ की गुफा में वो दिव्य-ज्ञान प्रदान किया जिससे जन्म मृत्यु के बंधन को काटा जा सकता है | श्रद्धा जब ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होती है तो विश्वास को प्राप्त हो जाती है | परन्तु यहाँ एक बात स्पष्टतः समझ लेना चाहिए कि यहाँ ज्ञान का तात्पर्य किताबी जानकारी से नहीं अपितु भगवत-साक्षात्कार एवं अनुभव-गम्य ज्ञान से है | श्रीरामचरितमानस के उत्तर काण्ड में गोस्वामी जी लिखते हैं :- 



जाने बिनु न होई परतीति | बिनु परतीति होई नहीं प्रीति || 



प्रीति बिना नहीं भक्ति दृढ़ाई | जिमि खगपति जल के चिकनाई || 



अर्थात- बिना जाने विश्वास नहीं होता | और, बिना विश्वास के प्रेम नहीं होता | अगर मध्य रात्री में कोई अन्जान व्यक्ति हमारे द्वार पर आ जाए तो हम उसे घर में प्रवेश नहीं देते क्योंकि हम उसे जानते नहीं हैं | और इसी कारण उस पर विश्वास नहीं करते | और जिस पर विश्वास नहीं करते, उससे प्रेम नहीं करते हैं | अगर अपने पडोसी, मित्र अथवा भाई पर विश्वास न हो तो उनसे प्रेम भी संभव नहीं है | वैसे ही बिना प्रेम के भक्ति दृढ नहीं होती | और ऐसी भक्ति जो बिना आध्यात्मिक ज्ञान-अनुभूति के हो अर्थात ईश्वरीय रहस्य को बिना जाने हो उस भक्ति और भक्त की स्थिति जल की चिकनाई के सामान हो जाती है | अगर पानी में तेल डाल कर तेल को पानी से मिलाया जाए तो तेल और पानी कभी मिलने वाले नहीं हैं | वैसे ही बिना आध्यात्मिक ज्ञान के भक्त और भगवान् का मिलन भी नहीं हो पाता | अतः बिना आध्यात्मिक ज्ञान के श्रद्धा विश्वास का मिलन भी नहीं होता | और जब आध्यात्मिक ज्ञान होता है तब ही ह्रदय गुहा में स्थित ईश्वरीय तत्व का दर्शन होता है | 





इस प्रकार श्रद्धा और विश्वास का मिलन आवश्यक है | भक्ति और ज्ञान का मिलन भी आवश्यक है | भक्ति और ज्ञान दोनों एक दुसरे के पूरक हैं | अतः भगवान् शिव और पार्वती जी श्रद्धा विश्वास स्वरुप हैं और आध्यात्मिक ज्ञान के माध्याम से श्रद्धा और विश्वास का मिलन होता है | यह घटना भक्त के ह्रदय में घटती है और बिना श्रद्धा-विश्वास मिलन के भक्ति कभी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं होने वाली | अतः शिव-पार्वती विवाह भक्त के जीवन में घटने वाली एक आध्यात्मिक क्रान्ति का प्रेरक है | वह आध्यात्मिक क्रान्ति जो भक्तिमयी मीरा बाई के जीवन में संत रविदास से मिल कर आई थी | आध्यात्मिक क्रान्ति जो स्वामी विवेकानंद के जीवन में ठाकुर रामकृष्ण परमहंस से मिलकर आई थी | और ऐसी क्रान्ति प्रत्येक साधक, भक्त और मनुष्य के जीवन में आवश्यक है | तभी वह अपने जीवन को सार्थक कर पायेगा |

-श्री मनीष देव

Wednesday, 31 January 2018

श्रीराम भक्त - रविदास : संत रविदास गाथा



श्रीराम भक्त - रविदास : संत रविदास गाथा



आज से 600 वर्ष पहले काशी के ग्रामीण क्षेत्रों में एक क्रान्ति आई थी | यह क्रान्ति थी राम भक्ति की | गाँव गाँव से राम भक्तों ने “जय श्री राम “ का जय-घोष लगाना शुरू किया था | प्रभु भक्तों की संख्या बढ़ रही थी वो भी जात-पात के बन्धनों से मुक्त होकर | "श्री राम हमारे हैं, वही तो शबरी और केवट के थे, फिर उनकी भक्ति और पूजा का अधिकार हमसे कौन छीन सकता है |" गाँव गाँव गली गली में जय श्रीराम की गूँज थी | कोई खेतों में काम करने वाले किसान, मिटटी के घड़े बनाने वाले कुम्हार, चमड़े के जुते- चप्पल बनाने वाले चमार, शमशान में अंत्येष्टि करवाने वाले चंडाल, दूध का व्यापार करने वाले ग्वाला, कपड़ों के व्यापारी, मूर्तिकार, राजा के राजपूत सैनिक, और पूजा पाठ करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण भी इस भक्ति-क्रान्ति से अछूते नहीं रहे | सब एक एक कर के जुड़ते गए और 'जय श्री राम' जय श्री राम' का जय-घोष होने लगा | 


ईस जय घोष का शंखनाद पंडित शारदानन्द के पाठशाला के एक छात्र एवं उनके पुत्र के परम मित्र रविदास ने किया था | जब पहली बार पंडित शारदा नन्द ने अपने पुत्र को एक निम्न जाती के बालक के साथ खेलते हुए देखा तब वो बड़े नाराज हुए लेकिन जैसे ही एक दिन रविदास उनके सामने आये तब महाज्ञानी पंडित शारदानंद ने रविदास के भीतर छुपे आध्यात्मिक ज्ञान के महासागर को देख लिया और समझ गए कि इस भव-सागर में आध्यात्मिक क्रान्ति की लहरे उठने वाली हैं | और, श्री संतोक दास और श्रीमती कालसा देवी के पुत्र रविदास को अपनी पाठशाला में प्रवेश दे दिया | पंडित शारदानंद का विरोध पुरे ब्राह्मण समाज ने किया लेकिन पंडित शारदानंद अपने निर्णय पर अडिग रहे | एक दिन संध्या के समय खेलते खेलते उनके पुत्र की मृत्यु हो गई | लेकिन पंडी जी के पुत्र ने अपने परम मित्र रविदास को पुनः प्रातः खेल शुरू करने का वचन दिया था | और वचन के अनुसार सुबह सुबह रविदास पंडित शारदानंद के घर अपने मित्र के साथ खेलने कूदने आ गए | लेकिन घर में चारो और उदासी छायी हुई थी दुःख का वातावरण था | माता – पिता दोनों पुत्र वियोग में रो रहे थे | तब बालक रविदास ने पंडी जी से पूछा – “ गुरु जी मेरा मित्र कहाँ है ? उसने मुझे प्रातः लुक्का-छिपी खेलने के लिए बुलाया था” तब पंडित शारदानन्द ने रविदास से कहा “ रविदास, तेरा मित्र अब इस दुनिया में नहीं रहा, उसकी मृत्यु हो चुकी है “ | रविदास ने कहा "नहीं मुझे तो अपने मित्र के साथ खेलना है | बुलाओ उसे ! बताओ मुझे ! कहाँ है मेरा मित्र ?" पंडित शारदानन्द रविदास को अपने पुत्र के शव के पास ले जाते हैं | शव को देखर कर रविदास अपने मित्र को उठाने लगते हैं “ उठो मित्र ! उठो ! देखो तुमने मुझे बुलाया था मैं आ गया हूँ, हम दोनों अब खेलेंगे |” और रविदास की आवाज सुनकर पंडित शारदानन्द का पुत्र उठ खडा हुआ | पंडी जी ने रविदास को अपने गले लगा लिया और कहा आज मेरे घर मेरे श्रीराम आ गए | 'जय श्री-राम' का जय घोष चहूँ-दिशा में गूंजने लगा |


काशी में श्री राम जी के मंदिर के सामने भक्तिमयी लोना देवी श्री राम प्रभु के दर्शन के लिए व्याकुल खड़ी थी लेकिन मंदिर के पुजारी ने उन्हें छोटी जाती का बताकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया, और देवी लोना रोने लगीं | भगवान् के दर्शन हेतु इस प्रकार रोते हुए देख रविदास जी ने देवी लोना से पूछा “ देवी आप क्यों रो रही है ?” तब देवी लोना ने अपनी व्यथा रविदास जी को सुनाई | और तब रविदास जी ने कहा चलो मैं तुम्हे भगवान् श्री राम के दर्शन कराता हूँ | संत रविदास लोना को अपने घर के मंदिर में ले गए और प्रभु श्री राम जी का दर्शन करवाया | प्रभु श्रीराम की भक्ति ने देवी लोना और रविदास जी को प्रणय-सुत्र में बाँध दिया | 

और उनकी कुटिया से ही जय श्रीराम का उद्घोष हुआ | और इस उद्घोष की ध्वनी चारों दिशाओं में गूंजने लगी | कई भक्तिमयी आत्माएं जात-पात के बंधन को तोड़ते हुए संत-रविदास के अभियान में जुड़ गए | कई राजा महाराजा भी उनके अनुयाई बने | लेकिन इस प्रकार पूजा पाठ करते हुए देखकर काशी के कुछ पंडित-पुजारियों को अच्छा नहीं लगा | वो अपनी शिकायत लेकर काशी-नरेश के पास पहुँच गए और, और संत रविदास के विरुद्ध कार्यवाही करने की मांग की | राजा ने संत रविदास को राज सभा में बुलाया और, तब आध्यात्म भक्ति को लेकर रविदास जी का पुजारियों से शास्त्रार्थ हुआ | काशी नरेश को संत रविदास की हर बात अच्छी लगी लेकिन साथ ही वो ब्राह्मणों के विरुद्ध भी नहीं जाना चाहते थे | अतः उन्होंने घोसना कर दी की कल गंगा तट पर सभी भगवान् की मूर्ति लेकर आयें, जिसकी मूर्ति डूबेगी नहीं और तैर जायेगी वो भगवान् का सच्चा भक्त होगा | अगले दिन सभी अपने भगवान् की मूर्ति लेकर आये | पुजारियों ने अपनी मूर्ति पर सूत लपेट दिया जिससे वह मूर्ति डूबे ना | और संत रविदास ने तो अपने मंदिर के भगवान् श्री राम जी की मूर्ति ले आये जिनका वजन चालीस किलो के बराबर था | सबने पारी –पारी अपनी मूर्तियाँ गंगा जी में डाली | सबकी मूर्तियाँ डूबते गई लेकिन जब अंत में संत रविदास ने अपने भगवान् श्रीराम जी की मूर्ति डाली तब वह नहीं डूबी और तैरने लगी | फिर से चारो और “जय श्री राम” का जय-घोष होने लगा |

जात-पात के बंधनों से मुक्त होकर सभी प्रभु के भक्ति में जुड़ने लगे |




जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात |
रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाती न जात ||


जात पात पूछे नहीं कोए, हरी को भजे सो हरी का होए || 


रघुवर राऊर इहे बड़ाई, निदरी, गनी, आदर गरीब पर 


करत कृपा अधिकाई || (गो. तुलसीदास)




संत रविदास का यह अभियान हिन्दू-एकता का ज्वलंत उदाहरण है | संत रविदास के इस अभियान से हर जाती के लोग बिना किसी भेद भाव के श्रीराम-भक्ति से जुड़ते गए | आज पुनः राष्ट्र को ऐसे अभियान की आवश्यकता है |

"जय श्री राम"

लेखक:- श्री श्री मनीष देव 

Saturday, 13 January 2018

मकर संक्रांति – खगोलीय विज्ञान व् हिन्दू एकता की महाक्रान्ति



मकर संक्रांति – खगोलीय विज्ञान व् हिन्दू एकता की महाक्रान्ति 


भारतीय सनातन संस्कृति आध्यात्म और विज्ञान परक है | इस संस्कृति की परम्पराएं, रीती और रिवाज जो विज्ञान परक हैं, वो मानव कल्याण हेतु प्रारम्भ की गई | ज्योतिष विज्ञान एक महाविज्ञान है | अतः ज्योतिष को उपवेद भी कहा जाता है | भारतीय तिथि-तालिका, पंचांग अथवा विक्रमी संवत् के नाम से जाना जाता है | इसे पंचांग इसलिए कहते हैं क्योंकि इसके माध्यम से ज्योतिष के पांच अंगो की दैनिक जानकारी प्राप्त होती है – तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण | भारतीय पर्व-त्योहारों की तिथियाँ भी इसी पर आधारित होती हैं | भारतीय पंचांग (कैलेंडर) मात्र सूर्य और चंद्रा की गति पर आधारित नहीं होता | इसकी गणना 9 ग्रह, 12 राशियाँ, और 28 नक्षत्रों की गति से की जाती है | और इन्ही गणनाओ पर आधारित पर्व त्योहारों की तिथियाँ निश्चित की जाती है | और इन्ही त्योहारों में एक त्यौहार है मकर-संक्रांति | पुरे भारत वर्ष में इस पर्व को मनाया जाता है |



मकर संक्रांति का पर्व भी पूर्ण रूपेण ज्योतिष गणना पर ही आधारित है | बारह राशियों में दसवीं राशि मकर-राशी है | सूर्य जब धनु राशी से मकर राशि में प्रवेश करता है तो मकर संक्रांति होती है | इस प्रकार सूर्य एक वर्ष में 12 राशियों से गुजरता है | सभी राशि परिवर्तनों को संक्रांति नहीं कहा जाता है | मकर राशि में सूर्य का प्रवेश के साथ सूर्य उत्तरायण भी हो जाता है | कर्क राशि से धनु राशि तक सूर्य दक्षिणायन रहता है और मकर राशी से मिथुन रशिराशी तक सूर्य उत्तरायण रहता है | उत्तरायण होना देवताओं का दिन कहा गया है और दक्षिणायन होना देवताओं की रात्री कही गयी है | अतः इस दिन से सभी शुभ कार्य प्रारंभ हो जाते हैं | 


मकर-संक्रांति का महापर्व स्नान और दान का भी महा पर्व है | यह योगियों के लिए साधना का पर्व है | मकर संक्रांति के दिन स्नान और दान का विशेष महत्त्व है | लेकिन इस स्नान और दान कर्म के पीछे भी ग्रहों का महा विज्ञान है | मकर राशि शनि की राशी है, शनि उसका स्वामी ग्रह है | सूर्य व् शनि दोनों विपरीत प्रकृति के ग्रह हैं | अगर मेष राशी में सूर्य ऊंचा होता है तो उसी मेष राशि में शनि निचा हो जाता है | शनि तुला राशि में ऊंचा होता है तो सूर्य तुला राशी में नीचा हो जाता है | सूर्य देवता और पूण्य ग्रह कहा जाता है लेकिन शनि असुर और पाप-न्याय ग्रह कहा गया है | लेकिन दोनों ही क्रूर ग्रह की श्रेणी में आते हैं | सूर्य शनि के बीच पिता-पुत्र का सम्बन्ध भी है | सूर्य अग्नि का ध्योतक है तो शनि ज्वलनशील तेल का | अगर सूर्य प्रचंड अग्नि- स्वरुप है तो शनि ज्वलनशील तेल के सामान है, जो अग्नि को भड़काने वाला है | जब मकर संक्रांति आती है तो एक क्रूर ग्रह जो अग्नि का प्रतिनिधित्व करता है वो दुसरे विपरीत प्रकृति वाले क्रूर ग्रह जो कि ज्वलनशील तेल का परिचायक है उसकी राशि में प्रवेश करता है | मकर संक्रांति के दिन दोनों ग्रह अपनी क्रूरता को प्राप्त होते हैं, और प्रभावित लोगों के लिए कष्ट और व्याधियाँ भी लाते हैं | लेकिन सूर्य देव की क्रूरता सृष्टि के कल्याण के लिए ही होती है | धनु राशी का अंतिम चरण और मकर राशी का प्रथम तीन चरण उत्तर-आशाढ नक्षत्र के होते हैं, और इस नक्षत्र के देवता स्वयं सूर्य देव हैं | इस नक्षत्र में सूर्य का प्रवेश अत्यंत ही मंगलकारी होता है |  अतः इसी लिए यह दिन स्नान और दान का दिन है | शनि-देव को शांत रखने के लिए दान करना चाहिए अन्न का दान, काले कम्बल का दान, ऊनी वस्त्रों का दान, मछली को दाना डालना चाहिए, गाय को गुड़ खिलाना चाहिए, दरिद्रों को भोजन कराना चाहिए | प्रातः उठ कर ठीक सूर्योदय से पूर्व स्नान करना चाहिए और सूर्य देव को जल से अर्घ्य अर्पित करना चाहिए, और सूर्य देव से कृपा बनाए रखने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए | आज के दिन अरुणोदय के साथ जल में स्नान करने से औषधीय लाभ प्राप्त होता है | मकर संक्रांति के दिन सात्विक भोजन ही करना चाहिए जिसमे तेल का प्रयोग ना हो और मिर्च मशाले का प्रयोग ना हो अथवा न्यूनतम हो | क्योंकि तेल-मशाले वाले राजसी और तामसी भोजन शरीर में अग्नि बढाते हैं और वैसे ही यह दिन अग्नि का दिन है सूर्य की प्रचंडता का दिन है तो शनि के उबाल का दिन है | सूर्य के उत्तरायण होने और मकर राशि में प्रवेश के साथ इस दिन जाड़े की जड़ता भी ख़त्म होने लगती है | एक नवीन प्रारम्भ होता है खलिहानों से फसल घरो में आने लगते हैं | खुशियों का दिन है तो साथ ही साथ पुण्य-दया-धर्म अर्जित करने का दिन है | यह बूढ़े बुजुर्गों के सम्मान का दिन है, क्योंकि सूर्य-देव शनि-देव के पिता हैं और पिता अपने पुत्र के घर आये हैं | और पिता का सम्मान पुत्र के द्वारा होना चाहिए | यह पर्व पुरे भारत वर्ष और अन्य देशों में भी किसी न किसी रूप में मनाया जाता है | 

मकर-संक्रांति का पर्व पुरे भारत-वर्ष और नेपाल, थाईलैंड, लाओस, म्यांमार, कम्बोडिया, और श्रीलंका में भी मनाया जाता है यह भारतीय संस्कृति और पुरे भारत-वर्ष की एकता का भी प्रमाण देता है | यह पर्व तमिलनाडु में ‘पोंगल’ और ‘उझवर तिरुनल’ के नाम से, गुजरात और उत्तरखंड में ‘उत्तरायण’, पंजाब में लोहड़ी, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में ‘माघी’, असम में ‘भोगाली बिहू’ (माघ बिहू), उत्तर प्रदेश और बिहार में ‘खिचड़ी’ और ‘सकरात’ के नाम से, पश्चिम बंगाल में ‘पौष-संक्रांति’, कर्नाटक केरल व् आन्ध्र प्रदेश में ‘संक्रांति’, महाराष्ट्र और अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में मकर-संक्रांति के नाम से जाना जाता है |

विदेशों में बांग्लादेश में ‘पौष-संक्रांति’, नेपाल में ‘माघे-संक्रांति’ और खिचड़ी, थाईलैंड में ‘सोंकरण’, लाओस में – ‘पि मा लाओ’, मयन्मार में ‘थिद्यान’, कम्बोडिया में ‘मोहा संगक्रान’ और श्रीलंका में ‘उझवर तिरुनल’ व् ‘पोंगल’ के नाम से मनाया जाता है | यह भारतीय संस्कृति का परचम ही है जो पुरे विश्व में मकर संक्रांति के दिन लहराता है | यह इस बात का प्रमाण है कि विश्व के आध्यात्मिक व् सांस्कृतिक धरातल पर सनातन धर्म की जड़े बहुत गहरी पहुंची हुई हैं |

(श्री श्री मनीष देव)

Thursday, 4 January 2018

“युवा-दिवस” में युवा कौन और कहाँ ?



“युवा-दिवस” में युवा कौन और कहाँ ?
(राष्ट्रीय युवा दिवस)



प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है | और यह दिन है स्वामी विवेकानंद जी का जन्म दिवस | 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में स्वामी विवेकानंद (नरेन्द्रनाथ दत्त) का जन्म हुआ था | और स्वामी विवेकानंद जी के जन्म दिवस पर हमारे पुरे देश में ‘राष्ट्रिय युवा दिवस’ मनाया जाता है | स्वामी विवेकानंद आधुनिक युग में सनातन धर्म के पहले प्रचारक थे जिन्होंने सात समंदर पार जा कर विदेशों में सनातन धर्म का परचम लहराया | उनके द्वारा किये गए महान कार्य अविस्मरणीय है | वह भारतीय इतिहास की युग-गाथा में स्वर्ण लिखित है | राष्ट्रिय युवा दिवस स्वामी विवेकानंद जी के स्मृति में ही मनाया जाता है|



लेकिन, एक प्रश्न उठता है कि ‘राष्ट्रिय युवा दिवस’ स्वामी विवेकानंद जी के जन्म दिवस पर उनके स्मृति में ही क्यूँ मनाया जाता है ? क्या युवा दिवस मनाने के लिए कोई दुसरा चरित्र नहीं मिला ? कोई पहलवान ! कोई क्रिकेट या फुटबॉल खिलाड़ी ! या फिर कोई फ़िल्मी सितारा या फिर कोई राजनेता | क्योंकि ज्यादातर युवा तो इन्ही लोगो के पीछे भागते हैं और इनका फैन कहलाते हैं | बहुत कम ही ऐसे युवा होंगे जो स्वामी विवेकानंद को आदर्श मानते होंगे | जब वर्तमान परिस्थितियों और समय में आज का युवा स्वामी विवेकानंद जी से न प्रभावित नजर आते हैं, ना ही उन्हें अपना आदर्श मानते हैं, और न ही उनके आदर्शों पर चलते हैं, तो फिर युवा दिवस उनकी स्मृति में क्यों मनाया जा रहा है ? आज के वर्तमान परिवेश में यह ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़ा है |


अगर इस प्रश्न के उत्तर को समझना है तो ये भी समझना पडेगा कि युवा कहते किसको हैं ? युवा होने का क्या अर्थ है ? क्या युवा किसी जोश का नाम है ! या ‘युवा’ शक्ति प्रदर्शन का विषय है ! आखिर कौन है युवा ? कौन युवा कहलाने योग्य है ? क्या दाढ़ी मूछ उग जाना युवा होने की निशानी है ? या उम्र के साथ भुजाओं में बल आ जाने का नाम युवा है ? या तरुणी के बाहों में सो जाने का नाम युवा है ? अब यह दो ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने उठ खड़े होते हैं |



 आइये ‘युवा’ को समझने का प्रयास करें | अगर ‘युवा’ शब्द को उलटा कर दिया जाए तो वह ‘वायु’ बन जाता है | अब ‘वायु’ का अर्थ होता है ‘हवा’ या ‘पवन’ | बहती हुई हवा ही ‘वायु’ है | और वायु शब्द के अक्षर परस्पर परिवर्तित कर देने से ‘युवा’ हो जाता है | अर्थात ‘युवा’ ‘वायु’ का विपरीत हो जाता है शब्द परिवर्तन से भी और दोनों के अर्थों का मनन करें तो भी दोनों एक दुसरे के विपरीत ही नजर आयेंगे |

‘वायु’ अर्थात एक प्राकृतिक बहाव् एक हवा | ज्यादातर युवा इस प्राकृतिक बहाव में ही बह जाते हैं | लेकिन युवा वह नहीं जो जमाने की हवा में बह जाए | हवा के साथ दौड़ना आसान होता है, और लहरों के साथ तैरना आसान होता है लेकिन तैराक तो वह है जो लहरों के विपरीत दिशा में तैर जाए | और धावक तो वह है जो हवा की उलटी दिशा में दौड़ जाए | और स्वामी विवेकानंद जी का जीवन कुछ ऐसा ही था | जिस उम्र में युवक सुंदर नारी के स्वप्न देखता है, सिगरेट के धुएं उडाता है ! उस उम्र में उन्होंने अपना सर्वस्व धर्म-सेवा और आध्यात्मिक साधना को समर्पित कर दिया | और अपने कर्म से कर्मयोगी ने ऐसी तूफानी लहरे उठायी जिससे सारा विश्व प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका | स्वामी जी ने भारत के युवाओं को जागृत करते हुए कहा :-

“उठो मेरे शेरों, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम तो स्वछन्द हो, सनातन हो, अमर आत्मा हो, धन्य हो | तुम तत्व नहीं हो न ही तुम शरीर हो | तत्व तो तुम्हारा सेवक है | अपने अन्दर छुपी हुई शक्ति को पहचानो | स्वयम को कमजोर समझना ही सबसे बड़ा पाप है | ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां तुम्हारे भीतर हैं, उठो जागो” |


युवा तो वह है जो जमाने की हवा में ना बहे अपितु जमाने की दिशा और दशा ही बदल के रख दे | युवा तो वह है जो हवाओं का रुख मोड़ दे | एक और ऐसे ही वीर बाँकुरे हमारे देश में हुए जिन्हें “80 साल का जवान” भी कहते हैं –बाबू वीर कुंवर सिंह | सन 1857 की क्रान्ति के मुख्य चरित्र जिन्होंने 80 वर्ष के उम्र में वो कदम उठाया जो उस समय के जवानो को उठाना चाहिए था | इसलिए जवानी उम्र से नहीं जवानी तो जज्बे से देखि जाती है | लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज का युवा किस दिशा में जा रहा है ! क्या वह अपने युवा होने के अर्थ को सार्थक कर रहा है ! क्या युवा राष्ट्र का गौरव बढ़ा रहा है ?

लेकिन दुर्भाग्य पूर्ण है कि आज का युवा नशे के चुल्लू भर पानी में डूबता हुआ नजर आता है | सिगरेट के धुंए उड़ाता हुआ, गाली-गलौज करता हुआ, किसी कमजोर को डराता धमकाता हुआ, अपनी अस्मिता खो कर फ़िल्मी सितारों के पीछे भागता हुआ | अपने ही गाँव-गलियों की बहन-बेटियों पर अश्लील व्यंग करता हुआ नजार आता है, या फिर राष्ट्र-द्रोही ताकतों के हांथो में बिकता हुआ नजर आता है | लेकिन यह सब कार्य तो जमाने की हवा में बह जाने वाली बात हुई | और जो जमाने की हवा में बह गया वो ‘युवा’ कहाँ ! वो तो वायु हो गया, हवा-हवा हो गया ! हमारा भारत देश युवाओं का देश है | युवाओं की जनसंख्या सबसे ज्यादा भारत में है | लेकिन, देश का युवा दिशाहीन नजर आता है | आवश्यकता है मार्गदर्शन की, उसी मार्ग दर्शन की जिसे स्वामी विवेकानंद जी ने हमसब को अपने कर्म और वाणी से प्रदान किया | यही कारण है कि युवा-दिवस स्वामी जी के स्मृति में मनाया जाता है |



स्वामी विवेकानंद जी के इन्ही आदर्शों का अनुसरण करते हुए ‘दिव्य सृजन समाज’ युवाओं को धर्म-सेवा एवं आध्यात्मिक-साधना के प्रति जागरूक करने में निरंतर प्रयासरत है |

(श्रीश्री मनीष देव)

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna-

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna- https://youtu.be/lGb7E-LBo14