‘सनातन’ शब्द का अर्थ है, जो अपरिवर्तनशील
है, अविनाशी है | सृष्टि के पहले भी वह था, और प्रलय के बाद भी वह रहेगा | उसमें
कभी कोई परिवर्तन नहीं आता, वही अविनाशी तत्व है | वह सम्पूर्ण संसार का एक मात्र नियंता है |
उसकी धारणा ही धर्म है | ‘धर्म’ शब्द का शास्त्र-सम्मत अभिप्राय धारण करने से है,
और योग शास्त्र के अनुसार ‘धारणा’ की परिभाषा है- “ किसी वस्तु विशेष को लक्ष्य बना
लेना ही उस वस्तु विशेष की धारणा है” | अतः वह सनातन तत्व जो सम्पूर्ण जगत का
नियंता है, उसको अपने जीवन का लक्ष्य एवं केंद्र बना लेना ही सनातन धर्म एवं सनातन
धर्मियों का जीवन-आदर्श है | आइये हम सनातन धर्म के कुछ मुख्य भाव बिन्दुओं पर
दृष्टि डालते हैं :---
1.
उपनिषदों में प्रथम
उपनिषद ईशावास्य उपनिषद के प्रथम श्लोक में लिखा गया है :-
ईशा वास्यमिदम
सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत |
तेन त्यक्तेन
भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद धनम् ||
अर्थात, अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी
यह चराचरात्मक जगत देखने-सुनने में आता है, सब का सब सर्वाधार, सर्वव्यापि,
अविनाशी सर्वनियन्ता, सनातन ईश्वर से व्याप्त है; सदा-सर्वत्र उन्ही से परिपूर्ण
है | इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है | यह समझ कर उन ईश्वर को निरंतर अपने
चिंतन में रखना एवं इस जगत को परिवर्तनशील, नश्वर समझकर इसके प्रति अनासक्त एवं
त्याग का भाव रखते हुए मात्र कर्तव्य पालना एवं कर्म परायण प्रकृति के साथ कर्म का
सामंजस्य बनाने हेतु अनासक्त भाव से कर्म करते रहना अथवा जगत-विषयों का उपभोग करना
और मन को उसमें नहीं फंसने देना | ईशावास्य उपनिषद का यह प्रथम महावाक्य हीं सनातन
धर्म, संस्कृति एवं जीवन का आदर्श है |
2)
वह सनातन ईश्वर
सर्वव्यापी है; हर रूप में उसका रूप विधमान है | कठोपनिषद -2/12 में लिखा गया :-
एको वशी
सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति |
तमात्मस्थं ये
अनुपश्यन्ति धीरा स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम ||
उस एक सनातन ईश्वर के वश में सारे जीव हैं | वह ईश्वर एक रूप से अनेक रूप
धारण कर लेता है | अलग अलग देवी देवताओं के रूप में वह एक ईश्वर ही स्वयं को
प्रकाशित करता है | इस प्रकृति के विभिन्न रूपों में वह एक ईश्वर ही प्रकाशित होता
है | वृक्षों के फैली हुई शाखाओं में, नदियों की कल कल करती जल धारा में,
गगनचुम्बी पर्वतों की चोटियों में उस ईश्वर का रूप ही विधमान है | प्रकृति का वह
हर रूप जो जीवन दायिनी एवं हमें चेतना शक्ति प्रदान करता है वह सब सनातन धर्मियों
के लिए पूजनीय ही है | लेकिन, सर्वप्रथम वह परम चैतन्यमयी सनातन ईश्वर मनुष्य के
ह्रदय गुहा में ही विराजमान है, और ग्यानी-जन उसे अपने भीतर ही देखते हैं और उसका
ध्यान करते हैं | निरंतर उसका ध्यान करते हुए ही वह उस परम शाश्वत सुख एवं शान्ति
को प्राप्त करते हैं | यही सनातन धर्मियों के उपासना एवं साधना मार्ग का लक्ष्य है
| योगेश्वर श्री कृष्ण ने भी श्रीमद्भग्वदगीता के माध्यम से यही समझाने का प्रयास
किया है, कि वह एक ईश्वर ह्रदय गुहा में बसता है | तैतिरियो उपनिषद का भी यही मत
है:-
सत्यं ज्ञानमनन्तं
ब्रह्म | यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् | सो अश्नुते सर्वान कामान् सह
ब्रह्मणा विपश्चितेती |
वह ब्रह्म सत्य,
ज्ञानस्वरूप एवं अनंत है; वही ब्रह्म प्राणियों के ह्रदय रूप गुफा में छिपे हुए
हैं | जो उन्हें अपने भीतर ही जान लेता है वह उन विज्ञानस्वरुप ब्रह्म के साथ ही
संसार के सभी भोगो का अनुभव करता है | महाभारत में यक्ष के प्रश्न पर धर्मराज युधिष्ठिर का भी यही उत्तर था :-
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम, महायनो येन गतः सा पन्था |
अतः धर्मतत्व स्वरुप वह ईश्वर एक ही है और मनुष्य के
ह्रदय-गुहा में विराजमान है | वह सनातन ईश्वर हीं एक से अनेक रूप धारण करता है |
उस एक सत्य को ही विद्वान लोग अलग अलग तरीके से व्याख्या
करते है |
करते है |
‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति |’
3)
सनातन धर्म का तीसरा
मुख्य भाव बिंदु है, कि यह जीव उस सनातन अविनाशी ईश्वर का ही अंश है | जैसे वह
सनातन ईश्वर अविनाशी है वैसे हीं यह जीव भी अविनाशी है | मध्यकालीन संत गोस्वामी
तुलसी दास जी ने भी ईसी मत की पुष्टि करते हुए श्रीरामचरितमानस लिखते हैं :-
‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी,
चेतन अमल सहज सुख राशी |’
अर्थात यह जीव सनातन
ईश्वर का ही अंश है, यह चेतन मल-रहित, सहज एवं ईश्वर की तरह ही सुख की राशी है |
भगवान् श्री कृष्ण भी
श्रीमद्भगवदगीता में अर्जुन को समझाते हुए कहते
हैं :-
न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता
वा न भूयः |
यह जीवात्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है
और ना मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है क्योंकि यह अजन्मा,
नित्य सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता | अतः जीव
अविनाशी है इसकी मृत्यु नहीं होती, यह मोक्ष को प्राप्त होता
है | जिस प्रकार हम
मनुष्य फटे-पुराने वस्त्रों का त्याग कर के नूतन वस्त्र धारण करते हैं उसी प्रकार
यह जीव अपने कर्म एवं भावो के आधार पर अनुपयोगी हो गए शरीर का त्याग कर के नए शरीर
को धारण करता है | यह जीव अपने कर्म एवं गुणों से प्रभावित होकर एक से अनेक
योनियों में भटकता है | यहीं से पुनर्जन्म का सिद्धांत भी आता है | इस अविनाशी जीव
का एक शरीर त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना ही पुनर्जन्म है | लेकिन यह जन्म शरीर
का होता है और मृत्यु भी शरीर की ही होती है | अतः यह जीव अविनाशी ही है, यह जीव
ही सुख दुःख का अनुभव कर्ता है | यह जीव ही सभी कर्मों को करने वाला है, और फिर
अलग अलग शरीर धारण करते हुए अपने ही कर्मों के फल को भोगता है, एवं सुख दुःख का
अनुभव करता है | अतः प्रत्येक सनातन धर्मी जीव के अविनाशी होने का तथ्य स्वीकार
करता है, और पुनर्जन्म में भी विश्वास करता है, और अपना परलोक सुधारने एवं मोक्ष
की प्राप्ति हेतु अपने कर्म, उपासना, साधना एवं भक्ति के माध्यम से प्रयत्नरत रहता है |
प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी का मोक्ष प्राप्त
करना ही जीवन लक्ष्य है | मोक्ष का
तात्पर्य संसार के सभी नश्वर वस्तुओं से आसक्ति का त्याग करते हुए सभी गुण, कर्म,
एवं भावों का त्याग करके सनातन ईश्वर-स्वरुप को प्राप्त होना है | यह मोक्ष-
निर्वाण, कैवल्य ज्ञान, एवं समाधि के नाम से भी परिभाषित किया जाता है |
अतः सार रूप में हम समझना चाहें, तो सनातन
धर्मी एकेश्वर-वाद में विश्वास करता है, साथ ही ईश्वर को सर्वव्यापि एवं
सर्वनियन्ता के रूप में स्वीकार करता है | दूसरा वह ईश्वर के एक रूप से अनेक रूप
धारण करने में भी विश्वास करता है लेकिन उसमें भी ईश्वर के सगुन एवं निर्गुण रूप
की व्याख्या मिलती है | तीसरा यह जीवात्मा ईश्वर का ही सनातन अंश है एवं अविनाशी
भी है, यह जीवात्मा मृत्यु नहीं मोक्ष को प्राप्त होता है | मृत्यु और जन्म तो
मात्र शरीर के साथ ही संभव है, अपने कर्म एवं भावों के आधार पर जीवात्मा नूतन शरीर
धारण करता है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अपने पुनर्जन्म अथवा परलोक संवारने हेतु
कर्म-रत रहे और मोक्ष प्राप्ति हेतु योग-साधना एवं भक्ति का सहारा लेते हुए अपने
लक्ष्य को प्राप्त करे |
---- श्री मनीष देव
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