Sanyam
धारणा से समाधि की प्राप्ति तक की अवस्था अथवा अभ्यास को संयम भी कहा जाता है । महर्षि पतंजलि कहते हैं :-
त्रयमेकत्र संयमः ।3/4
अर्थात धारणा से समाधि तक की अवस्था एक रूप में 'संयम' कहलाती है।
अर्थात सर्व प्रथम किसी तत्व की धारणा होती है फिर उसका ध्यान फिर उस तत्व के प्रति एकीभाव होकर योगी उस तत्व की सिद्धि प्राप्त करता है । लेकिन जब योगी अपनी अस्मिता को खत्म कर के तत्व लीन हो जाता है तब वह समाधि की अवस्था में चला जाता है ।
अर्थात समाधि की अवस्था में किसी सिद्धि का अस्तित्व नहीं रहता है । महर्षि पतंजलि के अनुसार समाधि सिद्धियों के परे की अवस्था है।
जब मन वस्तु के बाहरी भाग को छोड़ कर उसके आभ्यांतरिक भावों के साथ अपने को एकरूप करने की उपयुक्त अवस्था में पहुंच जाता है , जब दीर्घ साधना के द्वारा मन उसी की धारणा करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है , तब उसे संयम कहते हैं । इस अवस्था को प्राप्त कर के योगी अगर भूत और भविष्य जानने की कोशिश करे तो उसे संस्कार के परिणामो में केवल संयम का प्रयोग करना होगा ।
पतंजलि योगसूत्र 3/17 ->
शब्द अर्थ और प्रत्यय, इनकी आपस में अध्यास हो जाने के कारण जो संस्कारवस्था आती है उसमें संयम करने से समस्त प्राणियों की वाणी का ज्ञान हो जाता है । अर्थात योगी को भाषा एवं वाणी सिद्धि प्राप्त होती है उसे सम्पूर्ण भाषाओं का ज्ञान एवं पशु पक्षियों की बोलियां भी समझ में आने लग जाती हैं योगी उन सभी बोलियों को बोल भी सकता है ।
शब्द अर्थ और प्रत्यय, इनकी आपस में अध्यास हो जाने के कारण जो संस्कारवस्था आती है उसमें संयम करने से समस्त प्राणियों की वाणी का ज्ञान हो जाता है । अर्थात योगी को भाषा एवं वाणी सिद्धि प्राप्त होती है उसे सम्पूर्ण भाषाओं का ज्ञान एवं पशु पक्षियों की बोलियां भी समझ में आने लग जाती हैं योगी उन सभी बोलियों को बोल भी सकता है ।
पतंजलि योगसूत्र 3/21->
शरीर के रूप में संयम कर लेने से जब उस रूप को अनुभव करने की शक्ति रोक ली जाती है, तब आंख की प्रकाश शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण योगी अंतर्धान होने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । वह सब के बीच रहते हुए भी किसी को नज़र नही आता ।
शरीर के रूप में संयम कर लेने से जब उस रूप को अनुभव करने की शक्ति रोक ली जाती है, तब आंख की प्रकाश शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण योगी अंतर्धान होने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । वह सब के बीच रहते हुए भी किसी को नज़र नही आता ।
पतंजलि योग सूत्र 3/23 :-
शीघ्र फल देने वाले और देर से फल देने वाले ऐसे दो प्रकार के कर्म होते हैं । इनमे संयम करने से , अथवा अरिष्ट नामक मृत्युलक्षणो से भी, योगी गण देह त्याग का ठीक समय जान लेते हैं ।
शीघ्र फल देने वाले और देर से फल देने वाले ऐसे दो प्रकार के कर्म होते हैं । इनमे संयम करने से , अथवा अरिष्ट नामक मृत्युलक्षणो से भी, योगी गण देह त्याग का ठीक समय जान लेते हैं ।
पतंजलि योग सूत्र 3/27 :-
महाज्योति में संयम कर लेने से सुक्ष्म, व्यवधान युक्त और दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है ।
महाज्योति में संयम कर लेने से सुक्ष्म, व्यवधान युक्त और दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है ।
सूर्य में संयम कर लेने से सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान प्राप्त हो जाता है
चंद्र में संयम कर लेने से सम्पूर्ण नक्षत्र ज्ञान अथवा ज्योतिष ज्ञान हो जाता है ।
नाभि चक्र में संयम करने से शरीर के सम्पूर्ण बनावट का ज्ञान हो जाता है।
कंठ कूप में संयम कर लेने से योगी को कभी भूख प्यास नहीं लगती ।
सिर की ज्योति में संयम करने से सिद्ध पुरुषों के दर्शन एवं इक्षामात्र से वार्तालाप भी होता है ।
पंच तत्वों का संयम से पंचतत्वों पर नियंत्रण प्राप्त होता है । प्राणों पर संयम से योगी प्राण लेने और प्राण देने की अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
पतंजलि योग सूत्र 3/39 :-
बन्धकारणशैथिलयात प्रचारसंवेदनाच्छ् चित्तस्य पर शरीरा वेशः
बन्धकारणशैथिलयात प्रचारसंवेदनाच्छ् चित्तस्य पर शरीरा वेशः
जब सूक्ष्म शरीर के बंधन का कारण शिथिल हो जाता है और योगी चित के प्रचार स्थानों को जान लेता है । तब वह दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं । योगी एक देह में रह कर और उस देह में क्रिया शील रहते हुए भी अन्य किसी मृत देह में प्रवेश कर के उसे गतिशील कर सकते हैं । ईसी प्रकार वह किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर के उसके मन बुद्धि एवं इन्द्रियों को निरुद्ध कर के उस पर नियंत्रण कर सकते हैं । वह योगी बहु शरीरी भी हो सकता है ।
योगी जल की सतह पर चलने, वायु में उड़ने अग्नि में तैरने की शक्ति प्राप्त कर लेते है ।
पतंजलि योग सूत्र 3/43 :-
शरीर और आकाश के संबंध में चित्तसंयम करने से योगी आकाश (space) अथवा अंतरिक्ष में गमन करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । योगी के लिए स्थूल शरीर की सारी बाधाएं नष्ट हो जाती हैं ।
शरीर और आकाश के संबंध में चित्तसंयम करने से योगी आकाश (space) अथवा अंतरिक्ष में गमन करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । योगी के लिए स्थूल शरीर की सारी बाधाएं नष्ट हो जाती हैं ।
लेकिन यह अवस्था समाधि नहीं है । समाधि की अवस्था में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व नहीं रहता वहां कारण शरीर अथवा बीज शरीर भी नहीं टिकता । वहाँ सम्पूर्ण लय होता है ।
समाधि तक पहुंचने के लिए योगी को सिद्धियों का त्याग करना पड़ता है ।
पतंजलि योग सूत्र 3/51
तद्विरागदपि दोषत्रओजक्ष्ये कैवलयं ।। 3/51:-
इन सब सिद्धियों को त्याग देने से दोष का बीज नष्ट हो जाता है , और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है ।
महर्षि पतंजलि योग सूत्र में सिद्धियों के प्रयोग की भर्त्सना करते हुए लिखते हैं ।
स्थानयुपनिमंत्रेणन संगस्यमयकरणं पुनरनिष्टप्रसंगात ।। 3/52
अर्थात सिद्धियों में आसक्ति एवं आनंद की अनुभूति करना योगी के लिए उचित नहीं है यह उसके लिए अनिष्ट कारी है । यह उसका पतन है । सिद्धियों का प्रदर्शन जनमानस के समक्ष एवं अन्य साधकों के समक्ष करना पाप है । क्योंकि यह अन्य साधको को उनके परमलक्ष्य से भटका कर सिद्धियों की ओर आकर्षित करेगा । अतः यह अनुचित है । महर्षि पतंजलि का यही मत है ।
स्थानयुपनिमंत्रेणन संगस्यमयकरणं पुनरनिष्टप्रसंगात ।। 3/52
अर्थात सिद्धियों में आसक्ति एवं आनंद की अनुभूति करना योगी के लिए उचित नहीं है यह उसके लिए अनिष्ट कारी है । यह उसका पतन है । सिद्धियों का प्रदर्शन जनमानस के समक्ष एवं अन्य साधकों के समक्ष करना पाप है । क्योंकि यह अन्य साधको को उनके परमलक्ष्य से भटका कर सिद्धियों की ओर आकर्षित करेगा । अतः यह अनुचित है । महर्षि पतंजलि का यही मत है ।
अगर कोई योगी परकाया प्रवेश की सिद्धी का प्रदर्शन करता है तो वह समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लिया ! ऐसा नही समझना चाहिए । यह मात्र संयम और सिद्धि का प्रयोग है । इस अवस्था में योगी का सूक्ष्म एवं कारण शरीर दोनो ही अस्तीत्व में होता है ।
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