Monday, 31 July 2017

धार्मिक राजनीती / religious politics


धार्मिक-राजनीति


लेखक- मनीष देव

“धर्म की राजनीति” - वर्तमान में इन शब्दों का प्रयोग हम अपने देश में प्रायः सुना करते हैं, कभी नेताओं के भाषण में तो कभी लेखकों के लेख में या फिर पत्रकारों की पत्रकारिता अथवा समाचार में | प्रायः लोगो को कहते हुए सुनते हैं कि धर्म की राजनीती नहीं होनी चाहिए अर्थात राजनितिक स्वार्थों को साधने के लिए धर्म का प्रयोग नहीं होना चाहिए | यधपि, आज हम चर्चा ‘धर्म की राजनीति’ नहीं अपितु 'धार्मिक-राजनीती' पर करेंगे | धर्म की राजनीति के स्थान पर अगर धार्मिक-राजनिति हो, तो फिर दृश्य परिवर्तित हो जाते हैं | और ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि राजा अथवा राजनेता अपनी प्रजा की नज़र में एक आदर्श के रूप में होता है | और अगर वह आदर्श धार्मिक गुणों(धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, धी, विद्या, सत्य आदी धर्म के 10 गुण बताये गए हैं) से अलंकृत ना हो, तो प्रजा और राष्ट्र को पतन के मार्ग पर ले जाएगा | इसको समझने के लिए धर्म और राजनीति के मौलिक अन्तर को समझना होगा | राजनीति जीवों के सामाजिक विकास की बाह्य प्रकृति है | और धर्म मनुष्य की चेतना के विकास की अन्तः-प्रकृति है | राजनीति अन्य जीवों में भी पायी जाती है जैसे बन्दर, भेड़, कुत्ता, आकाश में उड़ने वाले पक्षी ये सब भी अपना मुखिया अथवा नेता चुनते हैं | परन्तु धर्म मनुष्य जाती का ही महत्वपूर्ण स्वभाव है | अगर हम धर्म और राजनीति दोनों को पृथक पृथक समझ जाएँ तो पता चलेगा धर्म की राजनीति संभव ही नहीं है | धर्म के नाम पर धार्मिक विकृतियाँ अथवा धार्मिक मान्यताओं और सम्प्रदाय की राजनीति ही हो सकती है लेकिन धर्म की राजनिति संभव नहीं है | परन्तु, धार्मिक-राजनीती संभव भी है और होनी भी चाहिए | सत्य तो यह है कि राजनीति और धर्म का सम्बन्ध तो लक्ष्मी-नारायण का सम्बन्ध है, जहां पर नारायण धर्म के प्रतीक हैं और लक्ष्मी जी धर्म-पालन करते हुए श्रीनारायण की चरण सेवा में लगी हैं, वह राजनीति के प्रतिक स्वरुप में हैं | दूसरा उदाहरण हम विद्युत के उपकरण का भी ले सकते हैं- जैसे विद्युत उपकरण को क्रियाशील करती है लेकिन उपकरण बिजली को नहीं | यह विद्युत धर्म स्वरुप है | राजनीति का सर्वोत्तम सदुपयोग धर्म-रक्षा एवं धर्म-पालना ही है अतः सर्वप्रथम राजा का धार्मिक गुण संपन्न होना अनिवार्य है, अन्यथा राजा फिर अपने राजनितिक स्वार्थों को साधने के लिए धर्म की राजनीति शुरू कर देता है | हमारे प्राचीन इतिहास में ऐसा ही एक प्रसंग मिलता है जो इस विषय को और भी स्पष्ट कर देता है |



शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के जन्म के समय हीं यह भविष्यवाणी हो गई थी कि वह एक विश्व-स्तरीय महान सम्राट या फिर महान साधू बनेंगे | सत्य तो यह है कि महात्मा बुद्ध दोनों हीं बन गए साधू वह अपरोक्ष रूप से थे और सम्राट परोक्ष रूप से | महात्मा बुद्ध का धम्म-प्रचार उनके रहते हीं इतना विस्तारित हुआ कि बिना किसी राजनैतिक लक्ष्य के भी बुद्ध के धम्म ने राजनितिक रूप धारण कर लिया | उत्तर भारत के कई राजा अपने साम्राज्य के साथ बुद्ध के अनुयायी बन गए, अर्थात वह बुद्ध के दिए दिशा निर्देश से ही अपने राज-धर्म का पालन करते थे | मगध, कोसल, काशी, अंग, वैशाली, बंग, कलिंग और कौशाम्बी भी भगवान् बुद्ध के आध्यात्मिक आलोक से आलोकित एवं प्रेरित हो रहे थे | मगध नरेश बिम्बिसार एवं कोसल नरेश प्रसेनजीत तो बुद्ध के धम्म-पथ के उपासक बन गए थे | बुद्ध बिना किसी राजभवन के राज-गद्दी पर बैठे वन विहारों में कुश के आसन पर बैठ कर ही सभी राजाओं एवं उनकी प्रजा को राजधर्म-निर्देश देते थे | उनके अनुयायी राजा उनके निर्देशों का पालन किसी सम्राट की आज्ञा की भाँती ही करते थे बस अन्तर इतना था कि बुद्ध उनके ह्रदय के भी सम्राट थे | बुद्ध के शरण में कई राजा धार्मिक राजनीति की शिक्षा प्राप्त करते थे | वैदिक मतों के अनुसार भी राजाओं को धर्मोपदेश सुनना अनिवार्य था | समय बिता, और बिम्बिसार के हर्यक वंश के बाद शिशुनाग वंश और फिर नन्द वंश का समय आया नन्द वंश का नौवां राजा धननंद बहुत अत्याचारी और भोग-विलासी था | उसका आचरण धर्म-विरुद्ध एवं मानवता-विरुद्ध था | तब उसका विरोध मगध के आचार्यों ने अहिंसक रूप से किया | परन्तु हिंसा के पुजारी धननंद ने शस्त्र-बल से इस विरोध का दमन कर दिया | उस समय आचार्य चणक के पुत्र चाणक्य जो कि तक्षशीला विद्यापीठ के कुलपति भी हुए उन्होंने अपने भाषण-प्रवचन से राजा के विरुद्ध प्रजा को जागृत करना शुरू किया | उसी समय धननंद ने धर्म की राजनीति शुरू की | धननंद ने देखा कि उसका विरोध ब्राह्मण आचार्यों एवं गुरुकुल में रहने वाले ब्रह्मचारियों के द्वारा हीं किया जा रहा है | तब धननंद ने बौद्ध भिक्षुओं की बड़ी बड़ी सभाएं आयोजन करवाई | और प्रजा के बीच घोषणा करवा दिया कि “अब गुरुकुल के ब्रह्मचारियों को कोई भिक्षा नहीं देगा ! भिक्षा के अधिकारी मात्र बौद्ध भिक्षुक होंगे ये भिक्षुक उन ब्रह्मचारियों से श्रेष्ट हैं” | कुछ समय तक मगध की जनता मानने लगी कि उनका राजा धार्मिक हो गया है | परन्तु उस समय ब्राह्मण वर्ग और भिक्षुक वर्ग में किसी प्रकार का मतभेद नहीं था और आचार्य चाणक्य तो स्वयं बुद्ध के धम्म-पथ के उपासक बनने में विश्वास करते थे, अंततः बौद्ध भिक्षुओं ने आचार्य चाणक्य का ही साथ दिया और धननंद को हटा चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया गया | तब चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मणों एवं बौद्ध भिक्षुओं को अपने राज्य में बिना किसी भेद भाव के उचित एवं सम्मानित स्थान प्रदान किया और धार्मिक-राजनीति का ज्वलंत प्रमाण प्रस्तुत किया | उसी प्रकार मौर्य-वंश का अंतिम राजा बृहद्रथ धर्मच्युत एवं विलासी हो गया तब महर्षि पतंजलि ने उसे हटा अपने शिष्य पुष्यमित्र शुंग का राज्याभिषेक एक धार्मिक-राजा के रूप में किया |

अतः आज हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियों में जन-मानस को यह समझना आवश्यक है कि ‘धर्म की राजनीति’ एवं ‘धार्मिक राजनीति’ में बहुत अन्तर है | नहीं तो कोई धन का लोभी धननंद धर्म और जाती के नाम पर हमें विभाजित कर के फिर से हमें ठग सकता है | 

--मनीष देव

Thursday, 20 July 2017

Walking Meditation


WALKING-MEDITATION
चलित - ध्यान

(Manish Dev)




वर्तमान समय में कई लोग इस बात को लेकर संशय ग्रस्त रहते हैं, कि 'चलित ध्यान' अथवा 'नित्य ध्यान' या 'walking Meditation' क्या होता 
है | उनका मानना है कि ध्यान तो बैठ कर ही किया जाता है, फिर चलते फिरते ध्यान कैसे किया जाए | जैन, बौद्ध, योग एवं वेदांत जैसे सभी प्राचीन दर्शनों में चलित-ध्यान अथवा नित्य ध्यान का  वर्णन मिलता है |

एक समय भगवान् बुद्ध अपने भिक्षुक शिष्यों के साथ वन विहारों से गुजर रहे थे | सैकड़ों भिक्षुक, तथागत के पद-चिन्हों का अनुसरण करते हुए चल रहे थे | तभी अचानक! भगवान् बुद्ध रुके और पीछे  मुड़ कर सभी शिष्यों पर अपनी नज़र दौडाते हुए एक शिष्य पर उनकी नजर रुक गई | भगवान् बुद्ध ने उस शिष्य को देखते हुए कहा "राहुल तुम क्या सोच रहे हो ? मैं कुछ समय से अपने  शिष्य समुदाय से कुछ नकारात्मक तरंगों को पकड़ रहा हूँ | मैं देख रहा हूँ कि कोई अपने नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करने में असफल हो रहा है |" तब राहुल ने दोनों हाथ जोड़ कर भगवान् बुद्ध से कहा " हाँ भगवन ! मैं काफी समय से नकारात्मक विचारों के वशीभूत हूँ | आपके ईस धम्म-पथ पर चलना मेरे लिए कठिन हो रहा है |"  तब भगवान् बुद्ध ने राहुल से कहा "राहुल ! क्या तुम चलित-ध्यान की अवस्था में नहीं रहते ? अगर तुम चलित ध्यान का अभ्यास करोगे तो निश्चित हीं अपने मन की चंचलता पर नियंत्रण कर पाओगे |"  तब राहुल ने भगवान् बुद्ध से कहा "भगवन मैं प्रति दिन बैठ कर ही ध्यान करता हूँ, 'चलित-साधना' अथवा 'चलित-ध्यान' का मुझे कोई ज्ञान नहीं है |" तब भगवान् बुद्ध ने राहुल से कहा "राहुल तुम अपने बढ़ते हुए हर एक पग के साथ अपनी एक एक स्वांस को जोड़ दो | हर स्वांस के साथ अपना एक पग आगे बढाओ , इन स्वांसो की वृति में अपने मन को लगाए रखो | यह एक वृति अन्य वृतियों को तुम्हारे चित पर हावी नहीं होने देगी | यही 'चलित-साधना' अथवा 'नित्य-ध्यान' है | नित्य ध्यान की अवस्था में रहो! सर्वदा सचेत रहो! तभी तुम्हारा विवेक जागृत रहेगा | और अचेतन-मन की दमनकारी वृतियों से अपनी रक्षा कर पाओगे |" 

   नित्य कर्म परायण रहते हुए, एक निश्चित वृति से जुड़े रहना ही चलित-ध्यान अथवा नित्य-ध्यान की परिभाषा है | योगी निरंतर अपने मन में एक वृति को बनाए रखता है, जिससे कि अन्य वृतियां उसके ऊपर हावी न हो सके | वह चलते फिरते एवं हर कार्य करते हुए भी अपनी साधना करता रहता है | श्वांसो के माध्यम से ध्यान करने वाले योग-साधक, अपना हर कार्य करते हुए अपना ध्यान अपने श्वांसों पर टिकाये रहते हैं | फिर योगी निरंतर बैठ कर भी अपने धारणा एवं ध्यान का अभ्यास करते हैं | चलित साधना का अभ्यास करने से बैठ कर की गई ध्यान-साधना में शीघ्र हीं परिपक्वता आती है | इसका अभ्यास करने से चेतन-मन का विकास होता है | और साधक उच्च कोटि का  मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त करता है |

भगवान् श्री कृष्ण भी पृथा-पुत्र अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -

तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ||8.7||
(श्रीमद्भगवद्गीता)

अर्थात, हे अर्जुन! तुम निरंतर श्वांस-श्वांस में मेरा स्मरण करते हुए युद्ध भी करो | इस प्रकार तुम निरंतर सचेत अवस्था में रहते हुए इस धर्म-युद्ध में भी सफलता प्राप्त करोगे और निरंतर योग-ध्यान करते हुए मेरे परम धाम को भी प्राप्त करोगे | और यही जीवन की सफलता है |

(मनीष देव )

Thursday, 13 July 2017

Sanaatan Dharm

सनातन धर्म- मुख्यभाव बिंदु

(मनीष देव )




‘सनातन’ शब्द का अर्थ है, जो अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है | सृष्टि के पहले भी वह था, और प्रलय के बाद भी वह रहेगा | उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं आता, वही अविनाशी तत्व है |  वह सम्पूर्ण संसार का एक मात्र नियंता है | उसकी धारणा ही धर्म है | ‘धर्म’ शब्द का शास्त्र-सम्मत अभिप्राय धारण करने से है, और योग शास्त्र के अनुसार ‘धारणा’ की परिभाषा है- “ किसी वस्तु विशेष को लक्ष्य बना लेना ही उस वस्तु विशेष की धारणा है” | अतः वह सनातन तत्व जो सम्पूर्ण जगत का नियंता है, उसको अपने जीवन का लक्ष्य एवं केंद्र बना लेना ही सनातन धर्म एवं सनातन धर्मियों का जीवन-आदर्श है | आइये हम सनातन धर्म के कुछ मुख्य भाव बिन्दुओं पर दृष्टि डालते हैं :---

1.    उपनिषदों में प्रथम उपनिषद ईशावास्य उपनिषद के प्रथम श्लोक में लिखा गया है :-

ईशा वास्यमिदम सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत |
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद धनम् ||


अर्थात, अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगत देखने-सुनने में आता है, सब का सब सर्वाधार, सर्वव्यापि, अविनाशी सर्वनियन्ता, सनातन ईश्वर से व्याप्त है; सदा-सर्वत्र उन्ही से परिपूर्ण है | इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है | यह समझ कर उन ईश्वर को निरंतर अपने चिंतन में रखना एवं इस जगत को परिवर्तनशील, नश्वर समझकर इसके प्रति अनासक्त एवं त्याग का भाव रखते हुए मात्र कर्तव्य पालना एवं कर्म परायण प्रकृति के साथ कर्म का सामंजस्य बनाने हेतु अनासक्त भाव से कर्म करते रहना अथवा जगत-विषयों का उपभोग करना और मन को उसमें नहीं फंसने देना | ईशावास्य उपनिषद का यह प्रथम महावाक्य हीं सनातन धर्म, संस्कृति एवं जीवन का आदर्श है |

2)    वह सनातन ईश्वर सर्वव्यापी है; हर रूप में उसका रूप विधमान है | कठोपनिषद -2/12 में लिखा गया :-


एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति |
तमात्मस्थं ये अनुपश्यन्ति धीरा स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम ||


उस एक सनातन ईश्वर के वश में सारे जीव हैं | वह ईश्वर एक रूप से अनेक रूप धारण कर लेता है | अलग अलग देवी देवताओं के रूप में वह एक ईश्वर ही स्वयं को प्रकाशित करता है | इस प्रकृति के विभिन्न रूपों में वह एक ईश्वर ही प्रकाशित होता है | वृक्षों के फैली हुई शाखाओं में, नदियों की कल कल करती जल धारा में, गगनचुम्बी पर्वतों की चोटियों में उस ईश्वर का रूप ही विधमान है | प्रकृति का वह हर रूप जो जीवन दायिनी एवं हमें चेतना शक्ति प्रदान करता है वह सब सनातन धर्मियों के लिए पूजनीय ही है | लेकिन, सर्वप्रथम वह परम चैतन्यमयी सनातन ईश्वर मनुष्य के ह्रदय गुहा में ही विराजमान है, और ग्यानी-जन उसे अपने भीतर ही देखते हैं और उसका ध्यान करते हैं | निरंतर उसका ध्यान करते हुए ही वह उस परम शाश्वत सुख एवं शान्ति को प्राप्त करते हैं | यही सनातन धर्मियों के उपासना एवं साधना मार्ग का लक्ष्य है | योगेश्वर श्री कृष्ण ने भी श्रीमद्भग्वदगीता के माध्यम से यही समझाने का प्रयास किया है, कि वह एक ईश्वर ह्रदय गुहा में बसता है | तैतिरियो उपनिषद का भी यही मत है:-

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म | यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् | सो अश्नुते सर्वान कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेती |


वह ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप एवं अनंत है; वही ब्रह्म प्राणियों के ह्रदय रूप गुफा में छिपे हुए हैं | जो उन्हें अपने भीतर ही जान लेता है वह उन विज्ञानस्वरुप ब्रह्म के साथ ही संसार के सभी भोगो का अनुभव करता है | महाभारत में यक्ष के प्रश्न पर धर्मराज युधिष्ठिर का भी यही उत्तर था :-

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम, महायनो येन गतः सा पन्था |

 अतः धर्मतत्व स्वरुप वह ईश्वर एक ही है और मनुष्य के ह्रदय-गुहा में विराजमान है | वह सनातन ईश्वर हीं एक से अनेक रूप धारण करता है | उस एक सत्य को ही विद्वान लोग अलग अलग तरीके से व्याख्या 
करते है |

‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति |’


3)     सनातन धर्म का तीसरा मुख्य भाव बिंदु है, कि यह जीव उस सनातन अविनाशी ईश्वर का ही अंश है | जैसे वह सनातन ईश्वर अविनाशी है वैसे हीं यह जीव भी अविनाशी है | मध्यकालीन संत गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी ईसी मत की पुष्टि करते हुए श्रीरामचरितमानस लिखते हैं :-

‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी |’

अर्थात यह जीव सनातन ईश्वर का ही अंश है, यह चेतन मल-रहित, सहज एवं ईश्वर की तरह ही सुख की राशी है | 

भगवान् श्री कृष्ण भी श्रीमद्भगवदगीता में अर्जुन को समझाते हुए कहते
 हैं :-

न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणों- न हन्यते हन्यमाने शरीरे || 2/20||




यह जीवात्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता | अतः जीव अविनाशी है इसकी मृत्यु नहीं होती, यह मोक्ष को प्राप्त होता 
है | जिस प्रकार हम मनुष्य फटे-पुराने वस्त्रों का त्याग कर के नूतन वस्त्र धारण करते हैं उसी प्रकार यह जीव अपने कर्म एवं भावो के आधार पर अनुपयोगी हो गए शरीर का त्याग कर के नए शरीर को धारण करता है | यह जीव अपने कर्म एवं गुणों से प्रभावित होकर एक से अनेक योनियों में भटकता है | यहीं से पुनर्जन्म का सिद्धांत भी आता है | इस अविनाशी जीव का एक शरीर त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना ही पुनर्जन्म है | लेकिन यह जन्म शरीर का होता है और मृत्यु भी शरीर की ही होती है | अतः यह जीव अविनाशी ही है, यह जीव ही सुख दुःख का अनुभव कर्ता है | यह जीव ही सभी कर्मों को करने वाला है, और फिर अलग अलग शरीर धारण करते हुए अपने ही कर्मों के फल को भोगता है, एवं सुख दुःख का अनुभव करता है | अतः प्रत्येक सनातन धर्मी जीव के अविनाशी होने का तथ्य स्वीकार करता है, और पुनर्जन्म में भी विश्वास करता है, और अपना परलोक सुधारने एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु अपने कर्म, उपासना, साधना एवं भक्ति के माध्यम से प्रयत्नरत रहता है |

प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी का मोक्ष प्राप्त करना ही जीवन लक्ष्य  है | मोक्ष का तात्पर्य संसार के सभी नश्वर वस्तुओं से आसक्ति का त्याग करते हुए सभी गुण, कर्म, एवं भावों का त्याग करके सनातन ईश्वर-स्वरुप को प्राप्त होना है | यह मोक्ष- निर्वाण, कैवल्य ज्ञान, एवं समाधि के नाम से भी परिभाषित किया जाता है |


अतः सार रूप में हम समझना चाहें, तो सनातन धर्मी एकेश्वर-वाद में विश्वास करता है, साथ ही ईश्वर को सर्वव्यापि एवं सर्वनियन्ता के रूप में स्वीकार करता है | दूसरा वह ईश्वर के एक रूप से अनेक रूप धारण करने में भी विश्वास करता है लेकिन उसमें भी ईश्वर के सगुन एवं निर्गुण रूप की व्याख्या मिलती है | तीसरा यह जीवात्मा ईश्वर का ही सनातन अंश है एवं अविनाशी भी है, यह जीवात्मा मृत्यु नहीं मोक्ष को प्राप्त होता है | मृत्यु और जन्म तो मात्र शरीर के साथ ही संभव है, अपने कर्म एवं भावों के आधार पर जीवात्मा नूतन शरीर धारण करता है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अपने पुनर्जन्म अथवा परलोक संवारने हेतु कर्म-रत रहे और मोक्ष प्राप्ति हेतु योग-साधना एवं भक्ति का सहारा लेते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करे |   

       ---- श्री मनीष देव 

Monday, 10 July 2017

Sanyam


Sanyam 
संयम :-

धारणा से समाधि की प्राप्ति तक की अवस्था अथवा अभ्यास को संयम भी कहा जाता  है । महर्षि पतंजलि कहते हैं :-
त्रयमेकत्र संयमः ।3/4
अर्थात धारणा से समाधि तक की अवस्था एक रूप में 'संयम' कहलाती है।
अर्थात सर्व प्रथम किसी तत्व की धारणा होती है फिर उसका ध्यान फिर उस तत्व के प्रति एकीभाव होकर योगी उस तत्व की सिद्धि प्राप्त करता है । लेकिन जब योगी अपनी अस्मिता को खत्म कर के तत्व लीन हो जाता है तब वह समाधि की अवस्था में चला जाता है ।
अर्थात समाधि की अवस्था में किसी सिद्धि का अस्तित्व नहीं रहता है । महर्षि पतंजलि के अनुसार  समाधि सिद्धियों के परे की अवस्था है।

जब मन वस्तु के बाहरी भाग को छोड़ कर उसके आभ्यांतरिक भावों के साथ अपने को एकरूप करने की उपयुक्त अवस्था में पहुंच जाता है , जब दीर्घ साधना के द्वारा मन उसी की धारणा करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है , तब उसे संयम कहते हैं । इस अवस्था को प्राप्त कर के योगी अगर भूत और भविष्य जानने की कोशिश करे तो उसे संस्कार के परिणामो में केवल संयम का प्रयोग करना होगा ।
पतंजलि योगसूत्र 3/17 ->
शब्द अर्थ और प्रत्यय, इनकी आपस में अध्यास हो जाने के कारण जो संस्कारवस्था आती है उसमें संयम करने से समस्त प्राणियों की वाणी का ज्ञान हो जाता है । अर्थात योगी को भाषा एवं वाणी सिद्धि प्राप्त होती है उसे सम्पूर्ण भाषाओं का ज्ञान एवं पशु पक्षियों की बोलियां भी समझ में आने लग जाती हैं योगी उन सभी बोलियों को बोल भी सकता है ।
पतंजलि योगसूत्र 3/21->
शरीर के रूप में संयम कर लेने से जब उस रूप को अनुभव करने की शक्ति रोक ली जाती है, तब आंख की प्रकाश शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण योगी अंतर्धान होने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । वह सब के बीच रहते हुए भी किसी को नज़र नही आता ।
पतंजलि योग सूत्र 3/23 :-
शीघ्र फल देने वाले और देर से फल देने वाले ऐसे दो प्रकार के कर्म होते हैं । इनमे संयम करने से , अथवा अरिष्ट नामक मृत्युलक्षणो से भी, योगी गण देह त्याग का ठीक समय जान लेते हैं ।
पतंजलि  योग  सूत्र 3/27 :-
महाज्योति में संयम कर लेने से सुक्ष्म, व्यवधान युक्त और दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है ।
सूर्य में संयम कर लेने से सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान प्राप्त हो जाता है
चंद्र में संयम कर लेने से सम्पूर्ण नक्षत्र ज्ञान अथवा ज्योतिष ज्ञान हो जाता है ।
नाभि चक्र में संयम करने से शरीर के सम्पूर्ण बनावट का ज्ञान हो जाता है।
कंठ कूप में संयम कर लेने से योगी को कभी भूख प्यास नहीं लगती ।
सिर की ज्योति में संयम करने से सिद्ध पुरुषों के दर्शन एवं इक्षामात्र से वार्तालाप भी होता है ।
पंच तत्वों का संयम से पंचतत्वों पर नियंत्रण प्राप्त होता है । प्राणों पर संयम से योगी प्राण लेने और प्राण देने की अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
पतंजलि  योग सूत्र 3/39 :-
बन्धकारणशैथिलयात प्रचारसंवेदनाच्छ् चित्तस्य पर शरीरा वेशः
जब सूक्ष्म शरीर के बंधन का कारण शिथिल हो जाता है और योगी चित के प्रचार स्थानों को जान लेता है । तब वह दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं । योगी एक देह में रह कर और उस देह में क्रिया शील रहते हुए भी अन्य किसी मृत देह में प्रवेश कर के उसे गतिशील कर सकते हैं । ईसी प्रकार वह किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर के उसके मन बुद्धि एवं इन्द्रियों को निरुद्ध कर के उस पर नियंत्रण कर सकते हैं । वह योगी बहु शरीरी भी हो सकता है ।
योगी जल की सतह पर चलने, वायु में उड़ने अग्नि में तैरने की शक्ति प्राप्त कर लेते है ।
पतंजलि योग सूत्र 3/43 :-
शरीर और आकाश के संबंध में चित्तसंयम करने से योगी आकाश (space) अथवा अंतरिक्ष में गमन करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । योगी के लिए स्थूल शरीर की सारी बाधाएं नष्ट हो जाती हैं ।
लेकिन यह अवस्था समाधि नहीं है । समाधि की अवस्था में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व नहीं रहता वहां कारण शरीर अथवा बीज शरीर भी नहीं टिकता । वहाँ सम्पूर्ण लय होता है ।
समाधि तक पहुंचने के लिए योगी को सिद्धियों का त्याग करना पड़ता है ।

पतंजलि योग सूत्र 3/51
तद्विरागदपि दोषत्रओजक्ष्ये कैवलयं ।। 3/51:-
इन सब सिद्धियों को त्याग देने से दोष का बीज नष्ट हो जाता है , और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है ।
महर्षि पतंजलि योग सूत्र में सिद्धियों के प्रयोग की भर्त्सना करते हुए लिखते हैं ।
स्थानयुपनिमंत्रेणन संगस्यमयकरणं पुनरनिष्टप्रसंगात ।। 3/52
अर्थात सिद्धियों में आसक्ति एवं आनंद की अनुभूति करना योगी के लिए उचित नहीं है यह उसके लिए अनिष्ट कारी है । यह उसका पतन है । सिद्धियों का प्रदर्शन जनमानस के समक्ष एवं अन्य साधकों के समक्ष करना पाप है । क्योंकि यह अन्य साधको को उनके परमलक्ष्य से भटका कर सिद्धियों की ओर आकर्षित करेगा । अतः यह अनुचित है । महर्षि पतंजलि का यही मत है ।
अगर कोई योगी परकाया प्रवेश की सिद्धी का प्रदर्शन करता है तो वह समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लिया ! ऐसा नही समझना चाहिए । यह मात्र संयम और सिद्धि का प्रयोग है । इस अवस्था में योगी का सूक्ष्म एवं कारण शरीर दोनो ही अस्तीत्व में होता है ।
-- श्री मनीष देव जी  (दिव्य सृजन समाज)

Thursday, 6 July 2017

DHYAN :ध्यान


DHYAN :-
ध्यान  :-



ध्यान :-
अष्टांग योग का सातवां अंग है 'ध्यान'
पिछले छः अंगो का एक ही उद्देश्य है इस ध्यान की अवस्था को प्राप्त करना । ध्यान क्या है - वैसे ध्येय और ध्याता के बीच की प्रक्रिया हीं ध्यान है । लेकिन पतंजलि योग सूत्र ध्यान को मात्र इतना ही परिभाषित नहीं करता है । ध्यान अभ्यास का विषय नहीं है यह तो एक अवस्था है । अभ्यास यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, और धारणा का होता है ।

बाह्य दृष्टिकोण से देखे तो धारणा और ध्यान एक जैसे ही नजर आते हैं । धारणा का अर्थ है मन को किसी एक स्थान पर लगाना अथवा धारण करना । वह स्थान विशेष हमारे मस्तिष्क का मध्य भाग होता है । फिर प्रश्न उठता है कि धारणा और ध्यान में अंतर क्या है ?
मन को एक स्थान में संलग्न कर के फिर उस एकमात्र स्थान को अवलंबन स्वरुप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृति-प्रवाह उठाये जाते हैं, दूसरे प्रकार के वृति प्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते करते वे प्रथमोक्त वृति प्रवाह क्रमशः प्रबल आकार धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृति प्रवाह कम होते होते अंत में बिलकुल चले जाते हैं । और केवल एक वृति वर्तमान रह जाती है । बस यही अवस्था 'ध्यान' है । इसे ही 'ध्यान' कहते हैं । ध्यान एकीभाव अवस्था है अर्थात यहाँ सारी भावनाएं ख़त्म हो जाती हैं और मात्र एकभाव रह जाता है , वह है ध्येय का भाव , मात्र वही रह जाता है तो वह 'ध्यान' है । अर्थात धारणा के अभ्यास से ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है ।
जब हम धारणा का अभ्यास प्रारम्भ करते हैं तो सारी वृतियां बनी रहती है
वृत्तियों से तात्पर्य है आहार, निद्रा भय मैथुनं एवं लोभ मोह काम क्रोध अहंकार है ।ध्यानस्त योगी सभी भावो का त्याग कर एकी भाव हो जाता है । लेकिन भावातीत नहीं । क्योंकि इस अवस्था में सारे भावनाएं ख़त्म हो जाती लेकिन एक भाव अभी शेष बचा रहता है और वह है ध्येय का भाव अर्थात जो ध्यान का केंद्र बिंदु एवं लक्ष्य है । उसका आधार लेकर अहंकार और अस्मिता भी बची रहती है । अर्थात सारे विकार ख़त्म होकर एक विकार शेष रहता है । लेकिन यह अवस्था परमानंद की अवस्था है । इस अवस्था में योगी को कई सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं ।
लेकिन महर्षि पतंजलि ने इन सिद्धियों को अष्टांग योग का अंग नहीं बताया है । इन सिद्धियों को योग में बाधा उत्पन्न करने वाला तत्व बताया है ।
महर्षि पतंजलि ने सिद्धियों के कारण को संयम नाम दिया । यह योगी की इक्षा पर निर्भर करता है की वो संयम का प्रयोग कर अपने ध्यान शक्ति से सिद्धियों का प्रयोग करे । लेकिन यह कार्य समाधि तक पहुंचने में बाधा सिद्ध होती है ।
अतः ध्यान की अवस्था में योगी कई सिद्धियों को भी प्राप्त करता है ।
ध्यानस्थ योगी त्रय साक्षी होता है अर्थात वह तूरया अवस्था को प्राप्त कर लेता यह चौथी अवस्था है ये
जागृत स्वप्न एवं सुषुप्ति से परे चौथी अवस्था ।इस अवस्था को हमारे उपनिषदों में 'चतुष्पाद' भी लिखा हुआ है ।

ध्यानस्थ योगी एकीभाव होता है । अर्थात वह अन्य किसी भावो से प्रभावित नहीं होता ना वो किसी से प्रेम करता करता ना ही शत्रुता । वह भावातीत अवस्था की ओर आगे बढ़ता है ।
वह दूसरों के भाव अभिव्यक्ति से भी प्रभावित नहीं होता । कोई उससे प्रेम करे तो भी वह प्रभावित नहीं होता कोई उसे गालियां दे या क्रोध करे तो भी उसका मन कोई प्रतिक्रिया नहीं करता अगर कोई उसे भयभित करे तो भी वह शांत रहता है उसका मन भय के वशीभूत नहीं होता ।
अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से यह। सर्वश्रेष्ठ अवस्था है । ऐसे योगी संसार योगी संसार में रहते हुए लीला मात्र हीं करते हैं । क्योंकि वो किसी भाव के वशीभूत नहीं होते । तो सुख दुख अथवा उदासी और प्रसन्नता का कोई मतलब नहीं निकलता ।
यह परम आनंदमयि अवस्था है ।
ऐसी अवस्था में सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच का सम्बन्ध कमजोर पड़ जाता है और सूक्ष्म शरीर विशाल होने लग जाता है जिससे योगी को अनेको शक्तियां भी प्राप्त होनी शुरू हो जाती हैं
अगले अभिलेख में हम अष्टम अंग समाधि से पहले 'संयम' की चर्चा करेंगे पतंजलि योग सूत्र में इसका वर्णन आता है । संयम का प्रारम्भ धारणा से होता है और इसका अंत समाधि में होता है ।

-मनीष देव (दिव्य सृजन समाज)

Wednesday, 5 July 2017

samadhi

समाधि :-

समाधि :-
अष्टांग योग का आठवां अंग है समाधि ।
प्रत्येक साधक की साधना का लक्ष्य समाधि है । अगर कोई साधक समाधि के लिए साधना नहीं करता तो समझना चाहिए कि वो लक्ष्य से भटका है ।
समाधि भावातीत अवस्था है । समाधि अद्वैत अवस्था है ।
समाधि अव्यक्त अवस्था भी है ।
जहाँ सारी भावनाएं शून्य हो जाती हैं । वहाँ ना सुख है ना दुख । ना प्रेम है ना द्वेष । ना लाभ है ना हानि । वह परम परमानंद है ।
समाधि सिद्धियों के परे कि अवस्था है वहाँ सिद्धियों का खेल नहीं चलता । और योगी सिद्धियों का मोह त्याग कर ही समाधि की ओर अग्रसर हो सकता है। यही सच्चा वैराग्य है ।
पतंजलि योगसूत्र के अनुसार दो अवस्थाओं का वर्णन है :-
सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात
सम्प्रज्ञात :- वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता इन चारों से युक्त सम्यक ज्ञान पूर्वक अवस्था है ।
असम्प्रज्ञात :- इसमें मन बुद्धि चित्त एवं अस्मिता के सम्पूर्ण क्रियाओं का विराम होता है ।
सवितर्क समाप्ति: एवं निर्वितर्क समाप्ति: :-
सवितर्क समाप्ति :- इस अवस्था में योगी किसी विचार एवं भाव से ग्रसित या किसी भाव में आसक्त तो नहीं होता लेकिन उसके चित्त में विचारों का संक्रमण बना रहता है ।इस अवस्था में शब्द अर्थ एवं उससे उत्पन्न ज्ञान मिश्रित अवस्था में रहते हैं ।
निर्वितर्क समाप्ति:- जब स्मृति शुद्ध हो जाती है । अर्थात स्मृति में अब किसी भी गुण का संग ना हो । कोई तर्क वितर्क ना हो तो वह निर्वितर्क समाप्ति है ।
सबीज समाधि एवं निर्बीज समाधि:-
सबीज :- उपयुक्त अवस्थाओं में पूर्व कर्मों का बीज नष्ट नहीं होता अतः वह सबीज समाधि है। सबीज समाधि में अस्मिता सूक्ष्म रूप से रहती है । बीज शरीर विद्यमान रहता है ।
निर्बीज समाधि :- इस अवस्था में सम्पूर्ण संस्कारो का निरोध हो जाता है । सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर का सम्पूर्ण लय हो जाता है । यहाँ जीव के अस्तित्व का लय हो जाता है किसी प्रकार की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती । कोई अस्मिता नहीं होती ।
अगर हम सागर को ब्रह्म मान लें तो सागर की लहरें जीव हैं । सम्पूर्ण लहरों का शांत हो जाना ही समाधि हैं यहाँ तक कि उनके अस्तित्व के कारण का समाप्त हो जाना ही निर्बीज समाधि है ।
निर्बीज समाधि ही शुद्ध समाधि है अन्यथा अन्य सभी अवस्थाएं अशुद्ध समाधि है । अपूर्ण अवस्थाएं हैं ।
मृत्यु की अवस्था में मात्र स्थूल देह ही नष्ट होता है । सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरिर सम्पूर्ण कर्म संस्कारों के साथ विद्यमान रहता है । अतः मृत्यु के समय, सांसारिक आसक्ति वश जीव अपने मृत देह में प्रवेश करने का प्रयास करता है । लेकिन स्थूल शरीर क्षतिग्रस्त होने के कारण ।उपयोग के योग्य ना होने के कारण ही जीव उस देह का त्याग करता है ।
समाधि की अवस्था में तो जीव का जीवत्व ही नहीं रहता । सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर का भी लय हो जाता है । जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।


सूक्ष्म शरीर से सिद्धियों के माध्यम से यात्रा करने वाले योगी । समाधि तक नहीं पहुंचते । समाधि की अवस्था में कोई लोक परलोक नहीं होता जहाँ योगी यात्रा करने जाएगा ।
समाधि की अवस्था ही शिष्य और गुरु का मिलन है । यही पूर्णावस्था है ।
एक सिद्ध योगी अपने स्थूल देह को छोड़ कर दुबारा अपने शरीर में आ सकता है। लेकिन यह समाधि नहीं है । यह परकाया प्रवेश की सिद्धि है । जिसका वर्णन पिछले लेख में किया गया था ।
शिष्य अपने (आध्यात्मिक) गुरु को अथवा परमात्मा को तभी प्रसन्न कर सकता है जब वह समाधि के लिए प्रयासरत रहे । और धर्म प्रचार के माध्यम से दूसरों (जनमानस) को भी ऐसी ही प्रेरणा दे । क्योंकि समाधि ही लक्ष्य है । समाधि कोई स्वार्थ नहीं है । हाँ सिद्धियों की प्राप्ति स्वार्थ है । सम्पूर्ण साधना, गुरु सेवा एवं सत्संग का एक ही फल है समाधि ।
समाधि में तपस्या, साधना, आध्यात्मिक शास्त्रों के पठन-पाठन, सम्पूर्ण ज्ञान सम्पूर्ण मान सम्मान एवं अस्मिता, सांसरिक त्याग से उत्पन्न त्याग की भावना एवं सेवा करने से सेवक होने के भाव का भी सम्पूर्ण समर्पण हो जाता है ।
समाधि में ना ध्येय है ना ध्याता है ना ध्यान है । ना कर्म है ना कर्ता है और ना कोई कारक है। ना कोई गुरु है ना कोई शिष्य है । ना कोई भगवान है ना कोई भक्त है । क्योंकि यह सब कुछ भाव जगत में संभव है । और समाधि भावातीत अवस्था है ।
यह भाव जगत ही भवसागर है । और इस भव सागर से पार उतरना ही जीव का लक्ष्य है । गुरु शिष्य का संबंध भी इसी लक्ष्य को लेकर चलता है ।
गोस्वामी तुलसी दास जी उत्तर कांड में लिखते हैं । :-
एक व्याधि बस नर मरही ए असाधि बहुब्याधि। पीढ़ही संतत जीव कहूँ सो किमी लहै समाधि ।
अर्थात एक रोग ही मृत्यु के लिए पर्याप्त है लेकिन जीव को तो अनेकों रोग हैं जिसके कारण वह बार बार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है । ऐसी अवस्था मे जीव समाधि तक कैसे पहुंचे क्योंकि समाधि ही सभी व्याधियों से मुक्ति है ।

---- मनीष देव
  (दिव्य सृजन समाज)

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna-

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna- https://youtu.be/lGb7E-LBo14