Saturday, 18 May 2019

समाधि का रहस्य

योगी आचार्य गौड़ पाद जी को शुकदेवमुनि के शिष्य और आदिगुरु शंकराचार्य जी के गुरु गोविंदपाद जी के गुरु के रूप में स्मरण किया जाता है । उन्होंने मांडूक्य उपनिषद पर माण्डूक्य-कारिका नामक ग्रंथ की रचना की थी ।
आदिगुरु शंकराचार्य की सम्पूर्ण व्याख्या इस मांडूक्य कारिका नामक ग्रंथ पर ही आधारित थी । मैं उसके कुछ श्लोक अद्वैतप्रकरण अध्याय से प्रस्तुत करता हूँ ।

निगृहीतस्य मनसो निर्विकल्पस्य धिमतः । प्रचारः स तु विज्ञेयः सुशुपते अन्यो न तत्तमसः ।।34

--निगृहीत-रोके हुए, निर्विकल्प- सब प्रकार के कल्प विकल्प से रहित विवेकसम्पन्न चित्त का जो व्यापार है वो विशेष रूप से ज्ञातव्य है । सुषुप्ति अवस्था में जो चित्त वृत्ति है वह अन्य प्रकार की है । वह उस निरुद्धावस्था के समान नहीं है । अर्थात समाधि निरुद्धावस्था है । सुषुप्ति नहीं ।

लियते ही सुषुप्ते तंनिगृहितं न लियते । तदेव निर्भयं ब्रह्म ज्ञानलोकं समन्ततः ।। 35
(सुष्पति समाधि का भेद)

--- सुष्पति अवस्था में मन लीन हो जाता है, किन्तु निरुद्ध होने पर उसमें लीन नहीं होता । उस समाधि में तो सब ओर से निर्भय ब्रह्म ही रहता है ।

अजम निद्रम स्वप्नम नांकमरूपकं ।
सकृद्विभातं सर्वज्ञम नोपचारः कथानचनः ।।36

--ब्रह्म जन्मरहित, निद्रारहित, स्वप्नशून्य, नामरूप से रहित, नित्य चैतन्यस्वरूप सर्वज्ञ है । वृत्ति अविद्या का निरोध हो जाने के कारण उसमे कोई कर्तव्य नहीं है ।

सर्वाभिलापविगतः सर्वचिन्तासमुत्तथितः ।
सुप्रशान्तः सकरिज्ज्योतिः समाधिरचलोअभ्यः ।।37

-- वह सब प्रकार के वागव्यापार से रहित, सब प्रकार के चिंतन अंतःकरण के व्यापार से ऊपर, अत्यंत शांत, नित्य प्रकाश समाधि में अचल और निर्भय है । आदिगुरु इस पर भाष्य लिखते हुए कहते है - चित्त का समाहित होना ही समाधि है । चित के समाहित होते ही चित्त का व्यापार खत्म हो जाता है । फिर शुद्ध ब्रह्म ही होता है इसलिए यहाँ ब्रह्म को समाधि स्वरूप कहा गया है ।

इन तथ्यों का समर्थन करते हुए आचार्य गौड़पाद ने और भी कई श्लोक मांडूक्य कारिका में लिखा है । आचार्य गौड़पाद ने शुद्ध ब्रह्म की अवस्था चारों पादो के परे बताया है । अर्थात जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्य के परे । समाधि से पूर्व तूर्य में ब्रह्म सर्वव्यापी चैतन्य सर्वप्रथम प्रतिबिम्बित होता है । इस प्रतिबिम्बित अवस्था में समाधि अनुमानित होती है । अर्थात धुंवे को देखकर अग्नि का निश्चय कर लेना ।
यह सविकल्प समाधि है , सबीज समाधि है । यह अशुद्ध समाधि भी है (योगसूत्र) । हमें ब्रह्म और समाधि के विषय में महापुरुषों द्वारा जो उपदेश प्राप्त होते हैं । वो सविकल्प समाधि या तूर्य अवस्था वाले योगियों से ही प्राप्त होते हैं । क्योंकि उपदेश वही देगा जिसमें उपदेश देने का संकल्प है । अर्थात अभी चित्त का व्यापार पूर्णतः खत्म नहीं हुआ लेकिन खत्म हो जाने की संभावना सिद्ध हो चुकी है । जैसे मृत्यु को प्राप्त करने वाले कई लोगों को मृत्यु घटित होने के पूर्वसंकेत मिलने लगते हैं । वैसे ही सविकल्प अथवा सबीज समाधि तो ज्ञान की अवस्था है सचेत अवस्था है । अतः यहां पर सम्पूर्ण विलय का अनुमानित ज्ञान सिद्ध हो जाता है । इस अवस्था में ही योगी ब्रह्म-उपदेश करते हैं । अन्यथा महात्मा लोग अपनी योग-साधना और अध्ययन के आधार पर उपदेश प्रवचन करते हैं । और कुछ समाज कल्याण हेतु प्रवचन करते हैं । और कुछ महात्मा तो बस व्यर्थ ही माया का प्रसार करते हैं ।

निर्बीज और निर्विकल्प हो जाने पर कुछ भी शेष नही रहता अर्थात । कैवल्य प्राप्त व्यक्ति का अस्तित्व नहीं बनता तो उसका दर्शन या उपदेश भी नही बनता । गुरु और शिष्य जैसे संबंध भी नही बनते । अर्थात ऐसा कोई व्यक्ति हमारे सामने अभिव्यक्त नहीं हो सकता हो जो निर्बीज समाधि प्राप्त हो । और जहां पर अभिव्यक्ति नही वहां व्यक्ति भी नहीं । क्योंकि व्यक्त से ही व्यक्ति है । और समाधि वहाँ परम् अव्यक्त है ।

'धि' का अर्थ 'महत' तत्व से है चित्त से है इसीको हम बुद्धि के रूप में जानते हैं  । जब बुद्धि ही समाहित हो गई फिर कोई वृत्ति व्यापार शेष नहीं रहता । फिर कोई शब्द या भाव नहीं रहता तो किसी ईष्ट का भाव भी शेष नहीं रहेगा ।
महर्षि पतंजलि के अनुसार निर्बीज शुद्ध समाधि सिद्धि के परे की अवस्था है । समाधि में सिद्धियों का व्यापार भी नहीं रहता । क्योंकि सिद्धि प्रयोग तभी साम्भव है जब योगी के मन में संकल्प विकल्प की वृत्ति हो । परकाया प्रवेश जैसी सिद्धियाँ संकल्प विकल्प युक्त होती हैं । मरा हुआ देहासक्ति के कारण वापिस आ सकता । लेकिन समाधि को प्राप्त योगी अव्यक्त अवस्था को प्राप्त होता ।वहां किसी प्रकार की इक्षा व संकल्प का अस्तित्व नहीं बनता । और महर्षि पतंजलि ने इसीलिए संयम-सिद्धि की भर्त्सना की है । सिद्धि प्रयोग को नीच कर्म माना है । सिद्धि प्रयोग में आसक्ति योगियों को नहीं होती वो बस जगत को प्रेरणा देने मात्र ही इसका प्रयोग कर सकते हैं ।  लेकिन वो साथ में ये भी जानते हैं कि यह जाग्रत अवस्थारूप जगत सर्वदा द्वैत है और द्वैत ही रहेगा । अतः योगी सिद्धि प्रयोग को नीच कर्म ही मानते है यह द्वैत प्रसार का प्रपञ्च मात्र ही है ।  इसलिये योगियों में जगत कल्याण करने की कोई आसक्ति भी नहीं होती । अतः महर्षि पतंजलि ने  संयम-सिद्धि इसे अष्टांगयोग में सम्मिलित नहीं किया है । ये योग-बाधक तत्व ही है ।

महर्षि ने जिस निर्बीज समाधि का वर्णन किया है वही कैवल्य है मोक्ष है ।

कृपया इस पर विचार करें । सादर,🙏

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