पातंजलि के पाँच-विचार
वर्तमान समय में महर्षि पतंजलि का नाम सुनते ही, हमारे मन में कई प्रकार के योगासन, आयुर्वेदिक दवाईयों का ख्याल आने लगता है | सत्य है कि योग शास्त्र के रचनाकार महर्षि पतंजलि ही हैं | लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह हो जाता है कि आज के वर्तमान समय में कई लोग भौतिक वादी दृष्टिकोण होने के कारण पतंजलि के योग-विज्ञान को एक शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाला उपचार-प्रणाली मात्र समझते हैं | परन्तु, पतंजलि के योग सूत्र तो जीवन जीने की कला सिखाते हैं | इस महाविज्ञान को शारीरिक स्वास्थ्य तक सिमित समझना अन्याय होगा |
योग-शास्त्र का शारीरिक स्वास्थ्य से सम्बन्ध तो मात्र एक प्रतिशत(1%) ही नजर आता है | निन्यानबे प्रतिशत(99%) सम्बन्ध तो मन और चेतना से है | कहते हैं “मन जीते –जग जीते” अगर मन को जीत लिया जाए तो जग जीता जा सकता है | और मनुष्य के सुख-दुःख, शान्ति-अशांति, विश्वास-अविश्वास, उत्साह–अवसाद सब मन की ही अवस्था है | अगर मनुष्य अपने मन के भावनाओं एवं विचारों पर नियंत्रण करना सीख ले तो वह बाह्य-जगत की परिस्थितियों पर भी नियंत्रण प्राप्त कर लेगा | अतः शरीर के स्वास्थ्य से मन का स्वास्थ्य ज्यादा महत्वपुर्ण होता है | क्योंकि मन में उठने वाले भाव और विचार शरीर में भी परिवर्तन ला देने की क्षमता रखते हैं | और ऐसा देखा भी जाता है | अगर मन के क्रियाकलाप पर नियंत्रण करके उसे एकाग्र किया जाए तो चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं |और इन्ही रहस्यों का वर्णन महर्षि पतंजलि के योग-सूत्रों में मिलता है |
योग-सूत्रों के प्रारम्भ में ही महर्षि पतंजलि ने योग का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा-
योगश्चित्तवृतिनिरोधः ||2||
अर्थात योग का अभिप्राय और उद्देश्य चित्त और वृति का निरोध | अब थोडा समझे कि चित्त और वृति क्या है | ये इन्द्रियाँ अनुभव नहीं करती अतः इन्द्रियाँ तो अनुभूति का माध्यम मात्र है | और चित्त वह माध्यम जो अनुभूतियों को मन बुद्धि अहंकार से ले जाते हुए निश्चयात्मक और निर्णयात्मक अवस्था तक पहुंचाती है | मान लीजिये एक जलाशय में अगर पानी की सतह चित्त है तो उस सतह पर उठने वाली जल-तरंगे वृति है | जो सतह के माध्यम से स्वयं का प्रसार करती है | श्रीमद्भगवत् गीता के अनुसार वृति मनुष्य के जन्म-जन्म के संस्कार हैं | जिन संस्कारों के वशीभूत जीव अनेको कर्म करने हेतु प्रेरित होता रहता है |
महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन का उद्देश्य सभी चित्त वृतियों से मुक्त होकर स्वयं के आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार है | अतः उन्होंने अगले सूत्र में कहा :-
तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानाम ||3||
अर्थात ! चित्त-वृति को शांत कर द्रष्टा निज-स्वरुप में स्थित हो जाता है | महर्षि पतंजलि ने अपने इस रहस्यमयी ग्रन्थ में पांच प्रकार के वृतियों को वर्णन किया है | अर्थात हमारे अन्तः-करण रुपी सरोवर के जल-सतह पर पांच प्रकार की तरंगे उठती हैं और सर्वदा ही उठती रहती हैं |
वृत्त्य पंचत्यः क्लिष्टा अक्लिष्टा ||5||
प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः ||6||
प्रथम है 'प्रमाण'- अर्थात ऐसे विचार जो प्रत्यक्ष अनुभूति पर निर्भर हैं | जहां कोई कल्पना की आवश्यकता नहीं है | जैसे शोणित(रक्त) का रंग लाल होता है, तो वह लाल ही है, यह प्रत्यक्ष अनुभूति पर निर्भर है | और अनुभूति ही प्रमाण है | दुसरे प्रकार के वृति हैं ‘विपर्यय’- इसका अर्थ मिथ्या ज्ञान से है अर्थात जो प्रमाण पर आधारित नहीं और मिथ्या है | तीसरा बताया गया ‘विकल्प’ – यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व ना रहे तो वह विकल्प के श्रेणी में आयेगा | जैसे हमने कुछ मान लिया या कोई कल्पना कर ली | तो सारी कल्पनाएँ और तर्क इस श्रेणी में आ जाती हैं | चौथे प्रकार का विचार बताया गया 'निद्रा' अर्थात जब हम सो जाते हैं | निद्रा रुपी वृत्ति में दो तरंगे चलती हैं -1. स्वप्न और 2. सुसुप्ति | सुसुप्ति वह अवस्था है, जहाँ किसी प्रकार के इन्द्रिय-जनित विचार नहीं होते और स्वप्न में अवचेतन अवस्था में हम बहुत कुछ देखते हैं | पांचवी वृति है ‘स्मृति’ अर्थात जो भूतकाल पर निर्भर है: बीती हुई बाते जो हमारी स्मृति अर्थात याद में है |
अतः मन में यह पांच प्रकार की वृतियाँ ही उठती हैं | कोई छठी वृति नहीं होती | मन में आने वाले जितने भी विचार हैं वो सब इन पांच प्रकार के अन्दर ही आयेंगे अब चाहे वो विचार सृजनात्मक हो, विश्लेष्णात्मक, काल्पनिक अथवा समीक्षा पूर्ण | हम स्वयं इस बात पर विचार करें कि हम दिन-रात चौबीस घंटे क्या सोंचते हैं ? हम पायेंगे कि हम जो भी सोंचते हैं वो सब इन पांच वृतियों के अन्दर ही आयेंगे | प्रायः हम निद्रा को वृति नहीं समझते परन्तु पतंजलि योग सूत्रों में निद्रा भी एक वृति ही है | अर्थात हमारा सारा जीवन इन पांच प्रकार की वृतियों-विचारों के वशीभूत ही रहता है | हमारे सुख-दुःख, प्रसन्नता-अवसाद, जन्म-मृत्यु तक के पीछे ये पांच वृतियां कार्य करती हैं |
हम कभी इन वृतियों से मुक्त नहीं हो पाते | परन्तु योग का उद्देश्य है, इन पंच्-वृतियों से मुक्ति है | और वह अवस्था जहां इन वृत्तियों से मुक्ति प्राप्त हो उसे ‘समाधि’ अथवा 'कैवल्य' के नाम से जाना जाता है इसी अवस्था में विशुद्ध-ब्रह्म का साक्षात्कार होता है | समाधि की अवस्था के पहले योगी की जितनी भी अवस्थाएं हैं वो सब वृत्तियों के वशीभूत ही रहती हैं | अतः चित्त-वृत्ति के निरोध के लिए ही महर्षि पतंजलि ने अष्टांग-योग का मार्ग मानव-समाज के समक्ष रखा | और मनुष्य चित्त-वृत्ति को अपने नियंत्रण में रखकर ही अपने जीवन को शांत-सुखी बना सकता है | आज आधुनिक काल में जिस प्रकार से मनोरोगों का संक्रमण हो रहा है, उसके प्रति सचेत रहते हुए महर्षि पतंजलि के इस पञ्च-वृत्ति के मनोविज्ञान को समझना अनिवार्य लगता है और यह योग-विज्ञान हमें मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करता है |
(मनीष देव )
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