Monday, 6 November 2017

पातंजलि के पाँच-विचार



पातंजलि के पाँच-विचार


वर्तमान समय में महर्षि पतंजलि का नाम सुनते ही, हमारे मन में कई प्रकार के योगासन, आयुर्वेदिक दवाईयों का ख्याल आने लगता है | सत्य है कि योग शास्त्र के रचनाकार महर्षि पतंजलि ही हैं | लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह हो जाता है कि आज के वर्तमान समय में कई लोग भौतिक वादी दृष्टिकोण होने के कारण पतंजलि के योग-विज्ञान को एक शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाला उपचार-प्रणाली मात्र समझते हैं | परन्तु, पतंजलि के योग सूत्र तो जीवन जीने की कला सिखाते हैं | इस महाविज्ञान को शारीरिक स्वास्थ्य तक सिमित समझना अन्याय होगा | 



योग-शास्त्र का शारीरिक स्वास्थ्य से सम्बन्ध तो मात्र एक प्रतिशत(1%) ही नजर आता है | निन्यानबे प्रतिशत(99%) सम्बन्ध तो मन और चेतना से है | कहते हैं “मन जीते –जग जीते” अगर मन को जीत लिया जाए तो जग जीता जा सकता है | और मनुष्य के सुख-दुःख, शान्ति-अशांति, विश्वास-अविश्वास, उत्साह–अवसाद सब मन की ही अवस्था है | अगर मनुष्य अपने मन के भावनाओं एवं विचारों पर नियंत्रण करना सीख ले तो वह बाह्य-जगत की परिस्थितियों पर भी नियंत्रण प्राप्त कर लेगा | अतः शरीर के स्वास्थ्य से मन का स्वास्थ्य ज्यादा महत्वपुर्ण होता है | क्योंकि मन में उठने वाले भाव और विचार शरीर में भी परिवर्तन ला देने की क्षमता रखते हैं | और ऐसा देखा भी जाता है | अगर मन के क्रियाकलाप पर नियंत्रण करके उसे एकाग्र किया जाए तो चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं |और इन्ही रहस्यों का वर्णन महर्षि पतंजलि के योग-सूत्रों में मिलता है | 



योग-सूत्रों के प्रारम्भ में ही महर्षि पतंजलि ने योग का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा-

योगश्चित्तवृतिनिरोधः ||2||

अर्थात योग का अभिप्राय और उद्देश्य चित्त और वृति का निरोध | अब थोडा समझे कि चित्त और वृति क्या है | ये इन्द्रियाँ अनुभव नहीं करती अतः इन्द्रियाँ तो अनुभूति का माध्यम मात्र है | और चित्त वह माध्यम जो अनुभूतियों को मन बुद्धि अहंकार से ले जाते हुए निश्चयात्मक और निर्णयात्मक अवस्था तक पहुंचाती है | मान लीजिये एक जलाशय में अगर पानी की सतह चित्त है तो उस सतह पर उठने वाली जल-तरंगे वृति है | जो सतह के माध्यम से स्वयं का प्रसार करती है | श्रीमद्भगवत् गीता के अनुसार वृति मनुष्य के जन्म-जन्म के संस्कार हैं | जिन संस्कारों के वशीभूत जीव अनेको कर्म करने हेतु प्रेरित होता रहता है |

महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन का उद्देश्य सभी चित्त वृतियों से मुक्त होकर स्वयं के आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार है | अतः उन्होंने अगले सूत्र में कहा :-

तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानाम ||3|| 

अर्थात ! चित्त-वृति को शांत कर द्रष्टा निज-स्वरुप में स्थित हो जाता है | महर्षि पतंजलि ने अपने इस रहस्यमयी ग्रन्थ में पांच प्रकार के वृतियों को वर्णन किया है | अर्थात हमारे अन्तः-करण रुपी सरोवर के जल-सतह पर पांच प्रकार की तरंगे उठती हैं और सर्वदा ही उठती रहती हैं |

वृत्त्य पंचत्यः क्लिष्टा अक्लिष्टा ||5||

प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः ||6||



प्रथम है 'प्रमाण'- अर्थात ऐसे विचार जो प्रत्यक्ष अनुभूति पर निर्भर हैं | जहां कोई कल्पना की आवश्यकता नहीं है | जैसे शोणित(रक्त) का रंग लाल होता है, तो वह लाल ही है, यह प्रत्यक्ष अनुभूति पर निर्भर है | और अनुभूति ही प्रमाण है | दुसरे प्रकार के वृति हैं ‘विपर्यय’- इसका अर्थ मिथ्या ज्ञान से है अर्थात जो प्रमाण पर आधारित नहीं और मिथ्या है | तीसरा बताया गया ‘विकल्प’ – यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व ना रहे तो वह विकल्प के श्रेणी में आयेगा | जैसे हमने कुछ मान लिया या कोई कल्पना कर ली | तो सारी कल्पनाएँ और तर्क इस श्रेणी में आ जाती हैं | चौथे प्रकार का विचार बताया गया 'निद्रा' अर्थात जब हम सो जाते हैं | निद्रा रुपी वृत्ति में दो तरंगे चलती हैं -1. स्वप्न और 2. सुसुप्ति | सुसुप्ति वह अवस्था है, जहाँ किसी प्रकार के इन्द्रिय-जनित विचार नहीं होते और स्वप्न में अवचेतन अवस्था में हम बहुत कुछ देखते हैं | पांचवी वृति है ‘स्मृति’ अर्थात जो भूतकाल पर निर्भर है: बीती हुई बाते जो हमारी स्मृति अर्थात याद में है | 

अतः मन में यह पांच प्रकार की वृतियाँ ही उठती हैं | कोई छठी वृति नहीं होती | मन में आने वाले जितने भी विचार हैं वो सब इन पांच प्रकार के अन्दर ही आयेंगे अब चाहे वो विचार सृजनात्मक हो, विश्लेष्णात्मक, काल्पनिक अथवा समीक्षा पूर्ण | हम स्वयं इस बात पर विचार करें कि हम दिन-रात चौबीस घंटे क्या सोंचते हैं ? हम पायेंगे कि हम जो भी सोंचते हैं वो सब इन पांच वृतियों के अन्दर ही आयेंगे | प्रायः हम निद्रा को वृति नहीं समझते परन्तु पतंजलि योग सूत्रों में निद्रा भी एक वृति ही है | अर्थात हमारा सारा जीवन इन पांच प्रकार की वृतियों-विचारों के वशीभूत ही रहता है | हमारे सुख-दुःख, प्रसन्नता-अवसाद, जन्म-मृत्यु तक के पीछे ये पांच वृतियां कार्य करती हैं | 


हम कभी इन वृतियों से मुक्त नहीं हो पाते | परन्तु योग का उद्देश्य है, इन पंच्-वृतियों से मुक्ति है | और वह अवस्था जहां इन वृत्तियों से मुक्ति प्राप्त हो उसे ‘समाधि’ अथवा 'कैवल्य' के नाम से जाना जाता है इसी अवस्था में विशुद्ध-ब्रह्म का साक्षात्कार होता है | समाधि की अवस्था के पहले योगी की जितनी भी अवस्थाएं हैं वो सब वृत्तियों के वशीभूत ही रहती हैं | अतः चित्त-वृत्ति के निरोध के लिए ही महर्षि पतंजलि ने अष्टांग-योग का मार्ग मानव-समाज के समक्ष रखा | और मनुष्य चित्त-वृत्ति को अपने नियंत्रण में रखकर ही अपने जीवन को शांत-सुखी बना सकता है | आज आधुनिक काल में जिस प्रकार से मनोरोगों का संक्रमण हो रहा है, उसके प्रति सचेत रहते हुए महर्षि पतंजलि के इस पञ्च-वृत्ति के मनोविज्ञान को समझना अनिवार्य लगता है और यह योग-विज्ञान हमें मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करता है |

(मनीष देव )


Friday, 3 November 2017

'संत-मेला' से 'पशु-मेला' कैसे बना सोनपुर मेला !




‘संत-मेला’ से ‘पशु-मेला” कैसे बना सोनपुर-मेला !

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के एकादशी के दिन से तीन नदियों (शोण, गंगा और गंडक ) के संगम-तट पर, बिहार के सारण क्षेत्र के सोनपुर में एतेहासिक-पौराणिक सोनपुर पशु मेला का प्रारम्भ होता है | एक महीने तक चलने वाला यह मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है | पशु मेला का नाम सुनते ही हमारे मन में छवि बनती है कि वहां तो पशुओं का बाज़ार लगता होगा | वहां अन्य मनुष्यों के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता होगा | लेकिन मेला तो मेला ही होता है ! बदलते हुए दौर के साथ यह मेला भी मनोरंजन के साधनों से भरपूर मिलता है | इस मेले का इतिहास लगभग हजारो वर्ष पुराना है | राजस्थान पुष्कर में लगने वाले ऊंट-मेला की तरह सोनपुर विशेष रूप से हांथियों का मेला है | हांथियो का मेला होने के पीछे एक पौराणिक कथा और भगवान् की अनुपम लीला है |



सोनपुर का यह पशु-मेला ‘हरीहर-क्षेत्र मेला’ के नाम से भी जाना जाता है | स्थानीय लोग इसे ‘छत्तर मेला’ के नाम से भी जानते हैं | ‘हरिहर-क्षेत्र’ एक पौराणिक नाम है | सोनपुर मेला के पशु-मेला और विशेष रूप से हांथियो का मेला होने के पीछे एक पौराणिक कथा है | श्रीमदभागवत महापुराण के अष्टम-स्कन्द में गजेन्द्र-मोक्ष की कथा आती है | एक समय इन्द्र्धुम्न नाम के एक राजा को अगस्त्य मुनि ने हांथी(गज) बन जाने का श्राप दिया था, और हूहू नामक गन्धर्व देवल मुनि के श्राप से मगरमच्छ अर्थात ‘ग्राह’ बन गया था | कहते हैं एक समय गजेन्द्र अपने परिवार के संग हरिहर-क्षेत्र में गंगा के तट पर अपनी प्यास बुझाने गया | प्यास बुझाने के बाद गजेन्द्र अपने परिवार पत्नी बच्चों के साथ जल-क्रीडा करने लगा | उसी समय गजेन्द्र को इतना प्रसन्न देखकर इर्ष्या के वशीभूत ग्राह ने उसके पैर जल के भीतर जकड लिए | फिर गजेन्द्र और ग्राह के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया पुराणों के कथानुसार यह युद्ध कई वर्षो तक चला |
 


गजेन्द्र का परिवार भरा-पूरा था | उसकी कई पत्निया थी और सैकड़ो बच्चे भी थे लेकिन जब गजेन्द्र को ग्राह ने पकड़ा तब उसकी सहायता के लिए कोई नहीं आया | एक-एक करके सब नदी के बाहर चले गए और गजेन्द्र को ग्राह से संघर्ष करते हुए देखते रहे | जब गजेन्द्र की पत्नियों को लगा कि अब गजेन्द्र की मृत्यु निश्चित है तब गजेन्द्र की पत्नियों और भाई भतीजों ने उस स्थान पर गजेन्द्र को बिलकुल अकेला छोड़ कर सघन-वन में प्रस्थान कर गए | तब गजेन्द्र के मन में वैराग्य और इश्वर-प्रेम प्रगट हो गया | गजेन्द्र ने संसार के रिश्ते-नातो का रहस्य समझ लिया | गजेन्द्र ने जान लिया कि इस संसार में भगवान् के अलावा दुसरा कोई सहाय नहीं है | गजेन्द्र समझ चुका था कि अब भगवान् ही मेरी रक्षा कर सकते हैं | गजेन्द्र का मन भगवान् के प्रति समर्पित हो गया | तब गजेन्द्र ने अपने सूंढ़ में कमल का पुष्प लेकर भगवान् श्री हरी को समर्पित करते हुए, आर्त भाव से विभोर हो कर भगवान् को पुकारने लगा | रक्षस्व माम प्रभो ! रक्षस्व माम ! कहते हुए आर्त क्रंदन करते हुए गजेन्द्र ने प्रभु को पुकारा |


तब भगवान् श्री हरी अपने भक्त की तीव्र एवं आर्त भाव को देख कर प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए और भक्त-वत्सल भगवान् अपने भक्त की रक्षा हेतु गरूंड पर सवार हो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर चतुर्भुज रूप में गज की रक्षा हेतु अवतरित हो जाते हैं | पुराणों के अनुसार यह भगवान् श्रीहरी का चौदहवा अवतार था | तब भगवान् ने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का सर काट कर उसके धड से अलग कर दिया और शरणागत की रक्षा की | तब गजेन्द्र ने भगवान् की स्तुति की, और गजेन्द्र के द्वारा की गई यह स्तुति ‘गजेन्द्र-मोक्ष स्तोत्र ‘ के नाम से जाना जाता है | हिन्दू धर्म में इस स्तोत्र का पाठ बहुत महत्व रखता है | 

एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘गजेन्द्र’ और ‘ग्राह’ भगवान् विष्णु के द्वारपाल ‘जय’ और ‘विजय’ ही थे | और स्वयं भगवान् उन्हें मुक्त करने आये थे | साथ ही इस घटना से भगवान् ने गजेन्द्र का सांसारिक मोह भंग किया और ग्राह-वध से ग्राह को इर्ष्या मुक्त किया जो समूल पाप की जड़ है | कहते हैं ‘जय’ शिव भक्त थे और ‘विजय’ विष्णु भक्त अतः भगवान् विष्णु और भगवान् शिव के नाम पर उस क्षेत्र का नाम हरिहर-क्षेत्र पड़ गया | हरिहर-क्षेत्र के हरिहर मंदिर में भगवान् विष्णु और भगवान् शिव की पूजा एक ही मंदिर में एक साथ होती है,
जो कि अपने आप में एकलौता उदाहरण है | पुरे देश में ऐसा दुसरा मंदिर नहीं है |
|| भगवान् - श्री हरिहर ||

हरिहर-क्षेत्र में भगवान् की इस लीला के कारण सर्व प्रथम कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर वहां ऋषि मुनियों की शास्त्रार्थ सभाएं लगने लगी | फिर भक्त- गजेन्द्र को सम्मान देने हेतु लोग वहां हांथी लेकर आने लगे और धीरे धीरे इस उत्सव ने हांथी-मेला का रूप धारण किया | मौर्य वंश के प्रथम भारत-सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सोनपुर मेला से ही 100 हांथी खरीद कर सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस (जो कि चन्द्रगुप्त मौर्य के ससुर भी थे) को दिया था | फिर कालांतर में यहाँ आदि गुरु शंकराचार्य भी वेदांत प्रचार हेतु आये | एकबार चैतन्य महा प्रभु अपनी टोली के साथ नाचते गाते हुए अपने शिष्य ‘सनातन’ को ढूंढते हुए यहाँ आये | गुरु नानक देव, तुलसी, कबीर सब इस धरती पर ज्ञान का उपदेश करने और इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आते रहे | धीरे धीरे हांथी के अलावा यहाँ अन्य पशु पक्षी भी लाये जाने लगे और फिर धीरे धीरे यहाँ से पशु-पक्षियों का व्यापार भी शुरू हो गया | और ‘सोनपुर संत मेला’ धीरे धीरे ‘सोनपुर पशु-मेला’ के नाम से पुकारा जाने लगा | लेकिन ज्ञानियों एवं शास्त्रज्ञों के लिए तो यह संत-मेला ही है | पुराणों के अनुसार हरिहर क्षेत्र का महत्व प्रयाग और गया-धाम से भी ज्यादा बताया गया है | कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ गंगा स्नान करने का विशेष महत्व है |

(लेखक – मनीष देव )


Thursday, 2 November 2017

वामपंथ के श्री राम



वामपंथ के श्री राम





भला ! वामपंथ और श्री राम का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? यह प्रश्न हमारे मन में इस लेख के शीर्षक को पढ़ कर उठ सकता है | परन्तु सम्बन्ध है ! और गहरा सम्बन्ध है | कैसे ! आइये चर्चा करते हैं, और सर्वप्रथम वामपंथ को समझने का प्रयास करते हैं | ‘वाम’ शब्द का अर्थ होता है बांया अंग्रेजी में (Left) अतः वामपंथियों को लेफ्टिस्ट भी कहा जाता है | आखिर उन्हें लेफ्टिस्ट या वामपंथी कहने का क्या अर्थ है ? 


हमारे शरीर में बांया और दाहिना दो हाँथ होते हैं | दाहिने हाँथ को हम सीधा हाँथ भी कहते हैं, और बायें हाँथ को उलटा हाँथ भी कहते हैं | इसका मतलब यह नहीं है कि वामपंथियो की विचारधारा कोई उलटी विचारधारा है | वामपंथी विचारधारा का तात्पर्य है समाज में जो परम्पराएं चल रही हैं उसे बदल देने की विचारधारा | वामपंथी विचारधारा एक क्रांतिकारी विचारधारा है | वामपंथी विचारधारा के लोग वो होते हैं, जो समाज जिस धारा में बह रहा है उस धारा को वो परिवर्तित करने या विपरीत दिशा प्रदान करने में विश्वास रखते हैं | अर्थात वामपंथी लोग परम्पराओं को बदलने में विश्वास करते हैं | लेकिन, उनका उद्देश्य सुधारवादी होता है | इन परिवर्तनों के माध्यम से वो समाज में सुधार लाना चाहते हैं | वर्तमान वामपंथी विचारधारा के सूत्रधार जर्मन विचारक एवं अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स ही माने जाते हैं | और कार्ल मार्क्स सुधारवादी निति में ही विश्वास करते हैं | समाजवाद, समानता का अधिकार, पूंजीवाद से मुक्ति, धार्मिक भीरुता से समाज की मुक्ति, वर्ग व्यवस्था से मुक्ति, और मजदूर वर्ग को सम्मान और उनका अधिकार उन्हें दिलवाने की सोंच का प्रसार कार्लमार्क्स के द्वारा ही माना जाता है | अतः वर्तमान वामपंथी लोगों को मार्क्सिस्ट, कम्युनिस्ट के नाम से भी जाना जाता है | बाद में इस विचारधारा के आधार पर लेनिनवाद और माओवाद भी आया और बहुत हिंसा भी हुई | उपयुक्त तथ्य वामपंथ को समझने हेतु प्रस्तुत किये गए लेकिन हमारा विषय है कि वामपंथ का सम्बन्ध श्री राम से कैसे हो सकता है | श्री राम तो एक पौराणिक चरित्र हैं, फिर वो तो हमेशा वामपंथ के विरोधी लक्ष्य हुए हैं | परन्तु श्री राम ने बहुत से ऐसे कार्य किये जो सामाजिक रूढ़िवादिता के विरूद्ध नजर आती हैं और सुधारवादी हैं |



जिस दिन श्री राम गुरुकुल से अपने घर वापिस आये ठीक उसी दिन ऋषि विश्वामित्र उन्हें वन की ओर ले जाने का आग्रह उनके पिता महाराज-दशरथ से करने लगे | दशरथ पुनः श्री राम को वन में नहीं भेजना चाहते थे क्योंकि जिस गुरुकुल से वो आये थे वह भी वन-परिवेश में ही स्थित था | महर्षि विश्वामित्र एवं अन्य ग्रामवासियों को हमेशा उपद्रवी असुरों से व्यवधान प्राप्त होता था | असुर निरंतर ऋषि मुनियों एवं ग्रामवासियों पर अत्याचार करते थे | अतः असुरो पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु ऋषि विश्वामित्र श्री राम को दशरथ जी से मांग रहे थे, लेकिन छोटी उम्र और कई वर्षों के बाद गृह वापसी के कारण राजा दशरथ श्री राम को भेजना नहीं चाहते थे | परन्तु स्वयं श्री राम जी ने ही ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने का संकल्प ले लिया था | अतः पिता के मना करने पर भी उन्होंने समाज कल्याण हेतु जाने का निर्णय लिया | तब राजा दशरथ ने श्री राम से कहा “ हे राम अगर तुम जाने का निर्णय ले चुके हो तो अकेले मत जाओ साथ में तुम्हारे अयोध्या की सेना भी जायेगी तुम्हारी अंगरक्षक एवं सहायक बन कर |” परन्तु श्री राम ने सेना को ले जाने से मना करते हुए कहा “ पिता श्री मैं सेना नहीं ले जाउंगा ! मैं वन में जाकर उन वनवासियों और ग्रामवासियों को प्रोत्साहित कर उन्ही की सेना बनाऊंगा और राक्षसों का सामना करूँगा | राम बिना सेना के गए और राक्षसों पर विजय भी प्राप्त किया | फिर बिना अपने माता पिता के जानकारी के गुरु के कहने पर विवाह भी किया | राजा जनक ने सीता-स्वयंवर में शिव-धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की शर्त रखी थी, लेकिन श्रीराम ने प्रत्यंचा चढाने के साथ उसे तोड़ दिया | विवाह के तुरंत बाद एक षड्यंत्र के अधीन उन्हें चौदह वर्ष का वनवास दिया गया और श्री राम ने उसे स्वीकार किया | वनवास के समय उन्होंने समाज सुधार और राक्षसों पर प्रतिपंध लगाने की प्रतिज्ञा ली | श्री राम का सर्वप्रथम प्रहार जाती प्रथा पर था | वनवास में जाते ही श्री राम जी ने सर्वप्रथम निषादराज-गुह का आतिथ्य स्वीकार किया, जो कि शुद्र जाती से थे | फिर उसी शुद्र जाती वाले केवट को अपने गले लगाया और उसकी नाव पर गंगा पार किये | जाती प्रथा के उंच-नीच के सारे विचारधाराओं को खंडित करते हुए अनुसुचित-जनजाति की वनवासी शबरी के जूठे बेर भी श्री राम ने खाए | और बहुत सारे ऋषि-मुनि जो शबरी को नीच अथवा शुद्र समझने के कारण शबरी से घृणा करते थे उनको भी श्री राम ने जातिगत भेद भाव से ऊपर उठने का उपदेश दिया और आध्यात्मिक-ज्ञान भक्ति का मर्म समझाया | श्री राम ने वनवास के समय वनवासी जातियों के कल्याणार्थ उन्हें बहुत सारी विद्यायें सिखाई उन्हें स्वावलम्बी बनाया और आध्यात्मिक ज्ञान भक्ति भी दिया |


जब पूंजीपति रावण से युद्ध करने के लिए समुद्र तट पर पहुंचे तब भी उनकी सेना में अयोध्या के प्रशिक्षित सैनिक नहीं थे जिन्होंने एक समय देवताओं के पक्ष में असुरों के विरुद्ध युद्ध किया था और विजय प्राप्त किया था | श्री राम की सेना में वनवासी जातियों के लोग ही थे, जो काफी हद तक श्रीराम जी के द्वारा ही प्रशिक्षित थे | रावण ने लूट-पाट और छल-कपट से बहुत सारा धन एकत्र करके रखा था जिसका प्रयोग वह अपनी सामरिक शक्ति को बढाने और भोग-विलास में करता था | रावण पर विजय के बाद भी श्री राम ने लंका की जनता को अपना दास नहीं बनाया और रावण के भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया | विधवा-पुनर्विवाह का उदाहरण रखते हुए श्री राम ने रावण वध के बाद रावण की पत्नी मंदोदरी का विवाह विभीषण से करवा दिया जिसको मंदोदरी ने भी सहृदय स्वीकृति दी | इस प्रकार श्री राम ने कई क्रांतिकारी कदम उठाये | जिनकी व्याख्या में कई पुस्तके लिखी जा सकती है | और इस आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि श्री राम जी ने समाज की धारा को परिवर्तित करने की चेष्टा की थी लेकिन उनका उद्देश्य सुधारवादी था | इसप्रकार उस समय के अनुसार उन्होंने एक वामपंथी कदम ही उठाया था | उन्होंने उस समय के शुद्र मजदूर वर्ग, ग्रामवासियों और वनवासियों को एकत्र ही किया था परन्तु किसी राजसत्ता पर अधिकार करने के लिए नहीं अपितु जन-कल्याणार्थ | 


परन्तु ! वर्तमान में जो वामपंथ हमारे देश भारत में है वह ‘श्रीराम’ विरोधी है | देवी-दुर्गा जी द्वारा महिषासुर-वध एक क्रांतिकारी घटना और नारीशक्ति का परिचायक है | परन्तु वामपंथियों के लिए रावण और महिषासुर ही भगवान् हैं | देश के वामपंथियों को समलैंगिकता बड़ी नीतियुक्त और प्राकृतिक लगती है | शौच करने के लिए शौचालय अनिवार्य है, लेकिन वामपंथियों को लिंगवृति (sexual act) के लिए खुली छूट चाहिए | वर्तमान वामपंथी(कम्युनिस्ट) पूंजीवाद का विरोध करने के स्थान पर पूंजीपति बनने में लगा है और राजनैतिक सत्ता को हंथियाना ही उसका उद्देश्य नजर आता है | और इसके लिए वो छल-कपट और हिंसा का पूरा सहारा लेते हैं | विश्व के जिन देशों में कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी है, वहां भी अभी तक पूँजीवाद समाप्त नहीं हो पाया | मजदूर और गरीब वर्ग अभी भी वैसे ही अस्तित्व में बना हुआ है | कई लोग अभी भी अत्याचार, शोषण और असुविधा के शिकार हो रहे हैं, बस परिवेश बदल रहे हैं | ऐसे में प्रश्न उठ जाता है कि कार्ल मार्क्स का समाजवाद और समानता का अधिकार कहाँ खो गया ?

--मनीष देव

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna-

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna- https://youtu.be/lGb7E-LBo14