Saturday, 30 December 2017

इस नए साल में नया क्या ? – कोई नया बवाल !



इस नए साल में नया क्या ? – कोई नया बवाल !







अभी तो नए पत्ते भी नहीं निकले ! जमी हुई नदिया अभी पिघली भी नहीं ! कोहरे का कोहराम ऐसा कि घर से बाहर निकलना भी दूभर हो रहा है | टोपी से कान बाहर निकलते ही कन्कनाने लगते हैं और दांत कट-कटाने लगते हैं | बहती हुई शीत-लहर जैसे बुजुर्गो के लिए साक्षात यमदूत ही हो | बसंत की पछुआ जो मन मोहती है, वह दो मास पहले प्राण-हरण के लिए आतुर है | कइयो की जठराग्नि ठंडी पड़ रही है | कइयो का दम, दमा के कारण टूट रहा है | कई अनाथ हो रहे हैं तो कई दवाइयों के खर्चे पर अपनी सारी कमाई लूटा रहे हैं | 


वृक्षों के पल्लव मुरझाए पड़े हैं, जैसे अवसाद से ग्रसित हों | गेंदे के फूल जैसे मुह लटकाए पड़े है | छोटा सा नन्हा सा बालक बड़ा प्यारा सा है, जो देखता है प्यार से उसके गाल चूम लेता है | चूमते ही बालक रो पड़ता है और उसकी माँ चीख पड़ती ! “हाय ! मेरे लल्ला को ठण्ड लग गयी" | माँ भी डरती है अपने आँखों के तारे को चूमने से, कहीं उसे ठण्ड न लग जाए | 




शीतलहर की ठिठुरन ऐसी जैसे सारी दुनिया ठहर गई हो, और फिर उस में नये साल का बवाल | एक जगह जहां बैठ गए वहां से उठने का मन ना करे, और अगर कोई उठा दे तो चिल्ला पड़े “ अरे भाई अभी तो रजाई में गर्मी आई थी और तुमने उठा कर ठंढा कर दिया" | लेखकों का तो और भी बुरा हाल, बेचारा लेखक कंप-कंपाई थरथराई हांथों से लिखे तो कैसे लिखे | काँपता तो आदमी बस दो कारण से है, वो या तो भूतो के भय से या जनवरी के ठंढ से | अरे ! इस ठिठुरन में, ठहरन में और बर्फीली जमाव में ऐसा नया क्या हो गया कि नए साल का बवाल हो रहा है | 

कुछ मनचले कुछ बेवडे न बुजुर्गो की इज्जत करते हैं और ना ही नारी का सम्मान | मिल गया एक और बहाना पिने और पिलाने का “ हम तो गम में भी पियेंगे और ख़ुशी में भी” देखते हैं कौन रोकता है | इस ठिठुरन में हड्डी पर ज़रा सी चोट लग जाए तो ऐसा लगता है जैसे जान ही निकल जाए | और नए साल के बवाल पर निरीह - निरपराध बेजुबान जीव जंतुओं पर दाब और कटारे चलती हैं , कुछ उनकी हड्डियां चूस कर अपना ठण्ड मिटाना चाहते हैं | लेकिन हड्डियों का दर्द तब समझ में आये जब खुद की हड्डियों पर प्रहार हो | कितनी भी हड्डियां चूसो लेकिन ‘सरसों की साग’, ‘मक्के/बाजरे दी रोटी’ और ‘मूली के पराठे’ वाली गर्मी नहीं मिलने वाली |



यह कैसा नया साल है ! ना नई हवा है और न नई हरियाली | कोई रातो की नींद खराब कर रहा तो कोई दारु पिकर बवाल कर रहा है | कुछ मनचले नाचने गाने पर उतारू हैं तो उनके दादा दादी के प्राण चलने को तैयार हैं | ये कौन सा नया साल है भाई. ये कैसी संस्कृति है | भारतीय संस्कृति परम्परा में तो कोई भी शुभ कार्य एवं नया कार्य इस समय नहीं होता | इसे खरमास का समय कहा जाता है, और यह मकर संक्रांति (१४ जनवरी) के दिन ही समाप्त होता है | नए साल से तो नई शुरुआत होनी चाहिए और यहाँ तो पूरी प्रकृति ही जडवत हो जाती है | कोई नयापन का एहसास ही नहीं, कोई नई शुरुआत ही नहीं, तो फिर नया साल कैसा ?



पहले पूरी दुनिया में नया साल अप्रैल के महीने में ही मनाया जाता था | पहले अंग्रेजी कलेण्डर में 10 महीने ही होते थे | लेकिन रोम के तानाशाही मुर्ख निरंकुश राजाओं ने दो महीने जुलाई और अगस्त जोड़ दिए और और पहली जनवरी को ठहरी ठिठुरती ठंडी में नया साल मनाना शुरू कर दिया | भारतीय परिपाटी में तो चैत्र मास से ही नव वर्ष का आह्वान होता है | तब सारी प्रकृति नई और हरी भरी हो जाती है | जिन भारतियों को इस अंग्रेजी नये वर्ष में नया जोश आ रहा है | वो कहीं न कही मानसिक-दासता के शिकार हैं, अथवा प्रचलित मुर्खता के प्रभाव एवं भ्रम में हैं | भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिकता एवं आध्यात्मिकता को समझने की आवश्यकता है, फिर सारे भ्रम स्वतः ही दूर हो जायेंगे | अन्यथा पश्चिमी भेड़-चाल में सर्वनाश ही होगा और हो रहा है | हमारा परिवार व् समाज माता पिता एवं बुजुर्गों का सम्मान खो रहा है | “न्यू इयर” जैसे त्योहारों के नाम पर अनाचार, दुराचार एवं व्यभिचार को बढ़ावा मिल रहा है | समय आ गया है कि हम दुनिया को अपनी सांस्कृतिक विरासत का परिचय दें और ज्ञान का आलोक दें |



(मनीष देव)

Monday, 6 November 2017

पातंजलि के पाँच-विचार



पातंजलि के पाँच-विचार


वर्तमान समय में महर्षि पतंजलि का नाम सुनते ही, हमारे मन में कई प्रकार के योगासन, आयुर्वेदिक दवाईयों का ख्याल आने लगता है | सत्य है कि योग शास्त्र के रचनाकार महर्षि पतंजलि ही हैं | लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह हो जाता है कि आज के वर्तमान समय में कई लोग भौतिक वादी दृष्टिकोण होने के कारण पतंजलि के योग-विज्ञान को एक शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाला उपचार-प्रणाली मात्र समझते हैं | परन्तु, पतंजलि के योग सूत्र तो जीवन जीने की कला सिखाते हैं | इस महाविज्ञान को शारीरिक स्वास्थ्य तक सिमित समझना अन्याय होगा | 



योग-शास्त्र का शारीरिक स्वास्थ्य से सम्बन्ध तो मात्र एक प्रतिशत(1%) ही नजर आता है | निन्यानबे प्रतिशत(99%) सम्बन्ध तो मन और चेतना से है | कहते हैं “मन जीते –जग जीते” अगर मन को जीत लिया जाए तो जग जीता जा सकता है | और मनुष्य के सुख-दुःख, शान्ति-अशांति, विश्वास-अविश्वास, उत्साह–अवसाद सब मन की ही अवस्था है | अगर मनुष्य अपने मन के भावनाओं एवं विचारों पर नियंत्रण करना सीख ले तो वह बाह्य-जगत की परिस्थितियों पर भी नियंत्रण प्राप्त कर लेगा | अतः शरीर के स्वास्थ्य से मन का स्वास्थ्य ज्यादा महत्वपुर्ण होता है | क्योंकि मन में उठने वाले भाव और विचार शरीर में भी परिवर्तन ला देने की क्षमता रखते हैं | और ऐसा देखा भी जाता है | अगर मन के क्रियाकलाप पर नियंत्रण करके उसे एकाग्र किया जाए तो चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं |और इन्ही रहस्यों का वर्णन महर्षि पतंजलि के योग-सूत्रों में मिलता है | 



योग-सूत्रों के प्रारम्भ में ही महर्षि पतंजलि ने योग का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा-

योगश्चित्तवृतिनिरोधः ||2||

अर्थात योग का अभिप्राय और उद्देश्य चित्त और वृति का निरोध | अब थोडा समझे कि चित्त और वृति क्या है | ये इन्द्रियाँ अनुभव नहीं करती अतः इन्द्रियाँ तो अनुभूति का माध्यम मात्र है | और चित्त वह माध्यम जो अनुभूतियों को मन बुद्धि अहंकार से ले जाते हुए निश्चयात्मक और निर्णयात्मक अवस्था तक पहुंचाती है | मान लीजिये एक जलाशय में अगर पानी की सतह चित्त है तो उस सतह पर उठने वाली जल-तरंगे वृति है | जो सतह के माध्यम से स्वयं का प्रसार करती है | श्रीमद्भगवत् गीता के अनुसार वृति मनुष्य के जन्म-जन्म के संस्कार हैं | जिन संस्कारों के वशीभूत जीव अनेको कर्म करने हेतु प्रेरित होता रहता है |

महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन का उद्देश्य सभी चित्त वृतियों से मुक्त होकर स्वयं के आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार है | अतः उन्होंने अगले सूत्र में कहा :-

तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानाम ||3|| 

अर्थात ! चित्त-वृति को शांत कर द्रष्टा निज-स्वरुप में स्थित हो जाता है | महर्षि पतंजलि ने अपने इस रहस्यमयी ग्रन्थ में पांच प्रकार के वृतियों को वर्णन किया है | अर्थात हमारे अन्तः-करण रुपी सरोवर के जल-सतह पर पांच प्रकार की तरंगे उठती हैं और सर्वदा ही उठती रहती हैं |

वृत्त्य पंचत्यः क्लिष्टा अक्लिष्टा ||5||

प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः ||6||



प्रथम है 'प्रमाण'- अर्थात ऐसे विचार जो प्रत्यक्ष अनुभूति पर निर्भर हैं | जहां कोई कल्पना की आवश्यकता नहीं है | जैसे शोणित(रक्त) का रंग लाल होता है, तो वह लाल ही है, यह प्रत्यक्ष अनुभूति पर निर्भर है | और अनुभूति ही प्रमाण है | दुसरे प्रकार के वृति हैं ‘विपर्यय’- इसका अर्थ मिथ्या ज्ञान से है अर्थात जो प्रमाण पर आधारित नहीं और मिथ्या है | तीसरा बताया गया ‘विकल्प’ – यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व ना रहे तो वह विकल्प के श्रेणी में आयेगा | जैसे हमने कुछ मान लिया या कोई कल्पना कर ली | तो सारी कल्पनाएँ और तर्क इस श्रेणी में आ जाती हैं | चौथे प्रकार का विचार बताया गया 'निद्रा' अर्थात जब हम सो जाते हैं | निद्रा रुपी वृत्ति में दो तरंगे चलती हैं -1. स्वप्न और 2. सुसुप्ति | सुसुप्ति वह अवस्था है, जहाँ किसी प्रकार के इन्द्रिय-जनित विचार नहीं होते और स्वप्न में अवचेतन अवस्था में हम बहुत कुछ देखते हैं | पांचवी वृति है ‘स्मृति’ अर्थात जो भूतकाल पर निर्भर है: बीती हुई बाते जो हमारी स्मृति अर्थात याद में है | 

अतः मन में यह पांच प्रकार की वृतियाँ ही उठती हैं | कोई छठी वृति नहीं होती | मन में आने वाले जितने भी विचार हैं वो सब इन पांच प्रकार के अन्दर ही आयेंगे अब चाहे वो विचार सृजनात्मक हो, विश्लेष्णात्मक, काल्पनिक अथवा समीक्षा पूर्ण | हम स्वयं इस बात पर विचार करें कि हम दिन-रात चौबीस घंटे क्या सोंचते हैं ? हम पायेंगे कि हम जो भी सोंचते हैं वो सब इन पांच वृतियों के अन्दर ही आयेंगे | प्रायः हम निद्रा को वृति नहीं समझते परन्तु पतंजलि योग सूत्रों में निद्रा भी एक वृति ही है | अर्थात हमारा सारा जीवन इन पांच प्रकार की वृतियों-विचारों के वशीभूत ही रहता है | हमारे सुख-दुःख, प्रसन्नता-अवसाद, जन्म-मृत्यु तक के पीछे ये पांच वृतियां कार्य करती हैं | 


हम कभी इन वृतियों से मुक्त नहीं हो पाते | परन्तु योग का उद्देश्य है, इन पंच्-वृतियों से मुक्ति है | और वह अवस्था जहां इन वृत्तियों से मुक्ति प्राप्त हो उसे ‘समाधि’ अथवा 'कैवल्य' के नाम से जाना जाता है इसी अवस्था में विशुद्ध-ब्रह्म का साक्षात्कार होता है | समाधि की अवस्था के पहले योगी की जितनी भी अवस्थाएं हैं वो सब वृत्तियों के वशीभूत ही रहती हैं | अतः चित्त-वृत्ति के निरोध के लिए ही महर्षि पतंजलि ने अष्टांग-योग का मार्ग मानव-समाज के समक्ष रखा | और मनुष्य चित्त-वृत्ति को अपने नियंत्रण में रखकर ही अपने जीवन को शांत-सुखी बना सकता है | आज आधुनिक काल में जिस प्रकार से मनोरोगों का संक्रमण हो रहा है, उसके प्रति सचेत रहते हुए महर्षि पतंजलि के इस पञ्च-वृत्ति के मनोविज्ञान को समझना अनिवार्य लगता है और यह योग-विज्ञान हमें मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करता है |

(मनीष देव )


Friday, 3 November 2017

'संत-मेला' से 'पशु-मेला' कैसे बना सोनपुर मेला !




‘संत-मेला’ से ‘पशु-मेला” कैसे बना सोनपुर-मेला !

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के एकादशी के दिन से तीन नदियों (शोण, गंगा और गंडक ) के संगम-तट पर, बिहार के सारण क्षेत्र के सोनपुर में एतेहासिक-पौराणिक सोनपुर पशु मेला का प्रारम्भ होता है | एक महीने तक चलने वाला यह मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है | पशु मेला का नाम सुनते ही हमारे मन में छवि बनती है कि वहां तो पशुओं का बाज़ार लगता होगा | वहां अन्य मनुष्यों के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता होगा | लेकिन मेला तो मेला ही होता है ! बदलते हुए दौर के साथ यह मेला भी मनोरंजन के साधनों से भरपूर मिलता है | इस मेले का इतिहास लगभग हजारो वर्ष पुराना है | राजस्थान पुष्कर में लगने वाले ऊंट-मेला की तरह सोनपुर विशेष रूप से हांथियों का मेला है | हांथियो का मेला होने के पीछे एक पौराणिक कथा और भगवान् की अनुपम लीला है |



सोनपुर का यह पशु-मेला ‘हरीहर-क्षेत्र मेला’ के नाम से भी जाना जाता है | स्थानीय लोग इसे ‘छत्तर मेला’ के नाम से भी जानते हैं | ‘हरिहर-क्षेत्र’ एक पौराणिक नाम है | सोनपुर मेला के पशु-मेला और विशेष रूप से हांथियो का मेला होने के पीछे एक पौराणिक कथा है | श्रीमदभागवत महापुराण के अष्टम-स्कन्द में गजेन्द्र-मोक्ष की कथा आती है | एक समय इन्द्र्धुम्न नाम के एक राजा को अगस्त्य मुनि ने हांथी(गज) बन जाने का श्राप दिया था, और हूहू नामक गन्धर्व देवल मुनि के श्राप से मगरमच्छ अर्थात ‘ग्राह’ बन गया था | कहते हैं एक समय गजेन्द्र अपने परिवार के संग हरिहर-क्षेत्र में गंगा के तट पर अपनी प्यास बुझाने गया | प्यास बुझाने के बाद गजेन्द्र अपने परिवार पत्नी बच्चों के साथ जल-क्रीडा करने लगा | उसी समय गजेन्द्र को इतना प्रसन्न देखकर इर्ष्या के वशीभूत ग्राह ने उसके पैर जल के भीतर जकड लिए | फिर गजेन्द्र और ग्राह के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया पुराणों के कथानुसार यह युद्ध कई वर्षो तक चला |
 


गजेन्द्र का परिवार भरा-पूरा था | उसकी कई पत्निया थी और सैकड़ो बच्चे भी थे लेकिन जब गजेन्द्र को ग्राह ने पकड़ा तब उसकी सहायता के लिए कोई नहीं आया | एक-एक करके सब नदी के बाहर चले गए और गजेन्द्र को ग्राह से संघर्ष करते हुए देखते रहे | जब गजेन्द्र की पत्नियों को लगा कि अब गजेन्द्र की मृत्यु निश्चित है तब गजेन्द्र की पत्नियों और भाई भतीजों ने उस स्थान पर गजेन्द्र को बिलकुल अकेला छोड़ कर सघन-वन में प्रस्थान कर गए | तब गजेन्द्र के मन में वैराग्य और इश्वर-प्रेम प्रगट हो गया | गजेन्द्र ने संसार के रिश्ते-नातो का रहस्य समझ लिया | गजेन्द्र ने जान लिया कि इस संसार में भगवान् के अलावा दुसरा कोई सहाय नहीं है | गजेन्द्र समझ चुका था कि अब भगवान् ही मेरी रक्षा कर सकते हैं | गजेन्द्र का मन भगवान् के प्रति समर्पित हो गया | तब गजेन्द्र ने अपने सूंढ़ में कमल का पुष्प लेकर भगवान् श्री हरी को समर्पित करते हुए, आर्त भाव से विभोर हो कर भगवान् को पुकारने लगा | रक्षस्व माम प्रभो ! रक्षस्व माम ! कहते हुए आर्त क्रंदन करते हुए गजेन्द्र ने प्रभु को पुकारा |


तब भगवान् श्री हरी अपने भक्त की तीव्र एवं आर्त भाव को देख कर प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए और भक्त-वत्सल भगवान् अपने भक्त की रक्षा हेतु गरूंड पर सवार हो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर चतुर्भुज रूप में गज की रक्षा हेतु अवतरित हो जाते हैं | पुराणों के अनुसार यह भगवान् श्रीहरी का चौदहवा अवतार था | तब भगवान् ने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का सर काट कर उसके धड से अलग कर दिया और शरणागत की रक्षा की | तब गजेन्द्र ने भगवान् की स्तुति की, और गजेन्द्र के द्वारा की गई यह स्तुति ‘गजेन्द्र-मोक्ष स्तोत्र ‘ के नाम से जाना जाता है | हिन्दू धर्म में इस स्तोत्र का पाठ बहुत महत्व रखता है | 

एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘गजेन्द्र’ और ‘ग्राह’ भगवान् विष्णु के द्वारपाल ‘जय’ और ‘विजय’ ही थे | और स्वयं भगवान् उन्हें मुक्त करने आये थे | साथ ही इस घटना से भगवान् ने गजेन्द्र का सांसारिक मोह भंग किया और ग्राह-वध से ग्राह को इर्ष्या मुक्त किया जो समूल पाप की जड़ है | कहते हैं ‘जय’ शिव भक्त थे और ‘विजय’ विष्णु भक्त अतः भगवान् विष्णु और भगवान् शिव के नाम पर उस क्षेत्र का नाम हरिहर-क्षेत्र पड़ गया | हरिहर-क्षेत्र के हरिहर मंदिर में भगवान् विष्णु और भगवान् शिव की पूजा एक ही मंदिर में एक साथ होती है,
जो कि अपने आप में एकलौता उदाहरण है | पुरे देश में ऐसा दुसरा मंदिर नहीं है |
|| भगवान् - श्री हरिहर ||

हरिहर-क्षेत्र में भगवान् की इस लीला के कारण सर्व प्रथम कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर वहां ऋषि मुनियों की शास्त्रार्थ सभाएं लगने लगी | फिर भक्त- गजेन्द्र को सम्मान देने हेतु लोग वहां हांथी लेकर आने लगे और धीरे धीरे इस उत्सव ने हांथी-मेला का रूप धारण किया | मौर्य वंश के प्रथम भारत-सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सोनपुर मेला से ही 100 हांथी खरीद कर सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस (जो कि चन्द्रगुप्त मौर्य के ससुर भी थे) को दिया था | फिर कालांतर में यहाँ आदि गुरु शंकराचार्य भी वेदांत प्रचार हेतु आये | एकबार चैतन्य महा प्रभु अपनी टोली के साथ नाचते गाते हुए अपने शिष्य ‘सनातन’ को ढूंढते हुए यहाँ आये | गुरु नानक देव, तुलसी, कबीर सब इस धरती पर ज्ञान का उपदेश करने और इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आते रहे | धीरे धीरे हांथी के अलावा यहाँ अन्य पशु पक्षी भी लाये जाने लगे और फिर धीरे धीरे यहाँ से पशु-पक्षियों का व्यापार भी शुरू हो गया | और ‘सोनपुर संत मेला’ धीरे धीरे ‘सोनपुर पशु-मेला’ के नाम से पुकारा जाने लगा | लेकिन ज्ञानियों एवं शास्त्रज्ञों के लिए तो यह संत-मेला ही है | पुराणों के अनुसार हरिहर क्षेत्र का महत्व प्रयाग और गया-धाम से भी ज्यादा बताया गया है | कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ गंगा स्नान करने का विशेष महत्व है |

(लेखक – मनीष देव )


Thursday, 2 November 2017

वामपंथ के श्री राम



वामपंथ के श्री राम





भला ! वामपंथ और श्री राम का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? यह प्रश्न हमारे मन में इस लेख के शीर्षक को पढ़ कर उठ सकता है | परन्तु सम्बन्ध है ! और गहरा सम्बन्ध है | कैसे ! आइये चर्चा करते हैं, और सर्वप्रथम वामपंथ को समझने का प्रयास करते हैं | ‘वाम’ शब्द का अर्थ होता है बांया अंग्रेजी में (Left) अतः वामपंथियों को लेफ्टिस्ट भी कहा जाता है | आखिर उन्हें लेफ्टिस्ट या वामपंथी कहने का क्या अर्थ है ? 


हमारे शरीर में बांया और दाहिना दो हाँथ होते हैं | दाहिने हाँथ को हम सीधा हाँथ भी कहते हैं, और बायें हाँथ को उलटा हाँथ भी कहते हैं | इसका मतलब यह नहीं है कि वामपंथियो की विचारधारा कोई उलटी विचारधारा है | वामपंथी विचारधारा का तात्पर्य है समाज में जो परम्पराएं चल रही हैं उसे बदल देने की विचारधारा | वामपंथी विचारधारा एक क्रांतिकारी विचारधारा है | वामपंथी विचारधारा के लोग वो होते हैं, जो समाज जिस धारा में बह रहा है उस धारा को वो परिवर्तित करने या विपरीत दिशा प्रदान करने में विश्वास रखते हैं | अर्थात वामपंथी लोग परम्पराओं को बदलने में विश्वास करते हैं | लेकिन, उनका उद्देश्य सुधारवादी होता है | इन परिवर्तनों के माध्यम से वो समाज में सुधार लाना चाहते हैं | वर्तमान वामपंथी विचारधारा के सूत्रधार जर्मन विचारक एवं अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स ही माने जाते हैं | और कार्ल मार्क्स सुधारवादी निति में ही विश्वास करते हैं | समाजवाद, समानता का अधिकार, पूंजीवाद से मुक्ति, धार्मिक भीरुता से समाज की मुक्ति, वर्ग व्यवस्था से मुक्ति, और मजदूर वर्ग को सम्मान और उनका अधिकार उन्हें दिलवाने की सोंच का प्रसार कार्लमार्क्स के द्वारा ही माना जाता है | अतः वर्तमान वामपंथी लोगों को मार्क्सिस्ट, कम्युनिस्ट के नाम से भी जाना जाता है | बाद में इस विचारधारा के आधार पर लेनिनवाद और माओवाद भी आया और बहुत हिंसा भी हुई | उपयुक्त तथ्य वामपंथ को समझने हेतु प्रस्तुत किये गए लेकिन हमारा विषय है कि वामपंथ का सम्बन्ध श्री राम से कैसे हो सकता है | श्री राम तो एक पौराणिक चरित्र हैं, फिर वो तो हमेशा वामपंथ के विरोधी लक्ष्य हुए हैं | परन्तु श्री राम ने बहुत से ऐसे कार्य किये जो सामाजिक रूढ़िवादिता के विरूद्ध नजर आती हैं और सुधारवादी हैं |



जिस दिन श्री राम गुरुकुल से अपने घर वापिस आये ठीक उसी दिन ऋषि विश्वामित्र उन्हें वन की ओर ले जाने का आग्रह उनके पिता महाराज-दशरथ से करने लगे | दशरथ पुनः श्री राम को वन में नहीं भेजना चाहते थे क्योंकि जिस गुरुकुल से वो आये थे वह भी वन-परिवेश में ही स्थित था | महर्षि विश्वामित्र एवं अन्य ग्रामवासियों को हमेशा उपद्रवी असुरों से व्यवधान प्राप्त होता था | असुर निरंतर ऋषि मुनियों एवं ग्रामवासियों पर अत्याचार करते थे | अतः असुरो पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु ऋषि विश्वामित्र श्री राम को दशरथ जी से मांग रहे थे, लेकिन छोटी उम्र और कई वर्षों के बाद गृह वापसी के कारण राजा दशरथ श्री राम को भेजना नहीं चाहते थे | परन्तु स्वयं श्री राम जी ने ही ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने का संकल्प ले लिया था | अतः पिता के मना करने पर भी उन्होंने समाज कल्याण हेतु जाने का निर्णय लिया | तब राजा दशरथ ने श्री राम से कहा “ हे राम अगर तुम जाने का निर्णय ले चुके हो तो अकेले मत जाओ साथ में तुम्हारे अयोध्या की सेना भी जायेगी तुम्हारी अंगरक्षक एवं सहायक बन कर |” परन्तु श्री राम ने सेना को ले जाने से मना करते हुए कहा “ पिता श्री मैं सेना नहीं ले जाउंगा ! मैं वन में जाकर उन वनवासियों और ग्रामवासियों को प्रोत्साहित कर उन्ही की सेना बनाऊंगा और राक्षसों का सामना करूँगा | राम बिना सेना के गए और राक्षसों पर विजय भी प्राप्त किया | फिर बिना अपने माता पिता के जानकारी के गुरु के कहने पर विवाह भी किया | राजा जनक ने सीता-स्वयंवर में शिव-धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की शर्त रखी थी, लेकिन श्रीराम ने प्रत्यंचा चढाने के साथ उसे तोड़ दिया | विवाह के तुरंत बाद एक षड्यंत्र के अधीन उन्हें चौदह वर्ष का वनवास दिया गया और श्री राम ने उसे स्वीकार किया | वनवास के समय उन्होंने समाज सुधार और राक्षसों पर प्रतिपंध लगाने की प्रतिज्ञा ली | श्री राम का सर्वप्रथम प्रहार जाती प्रथा पर था | वनवास में जाते ही श्री राम जी ने सर्वप्रथम निषादराज-गुह का आतिथ्य स्वीकार किया, जो कि शुद्र जाती से थे | फिर उसी शुद्र जाती वाले केवट को अपने गले लगाया और उसकी नाव पर गंगा पार किये | जाती प्रथा के उंच-नीच के सारे विचारधाराओं को खंडित करते हुए अनुसुचित-जनजाति की वनवासी शबरी के जूठे बेर भी श्री राम ने खाए | और बहुत सारे ऋषि-मुनि जो शबरी को नीच अथवा शुद्र समझने के कारण शबरी से घृणा करते थे उनको भी श्री राम ने जातिगत भेद भाव से ऊपर उठने का उपदेश दिया और आध्यात्मिक-ज्ञान भक्ति का मर्म समझाया | श्री राम ने वनवास के समय वनवासी जातियों के कल्याणार्थ उन्हें बहुत सारी विद्यायें सिखाई उन्हें स्वावलम्बी बनाया और आध्यात्मिक ज्ञान भक्ति भी दिया |


जब पूंजीपति रावण से युद्ध करने के लिए समुद्र तट पर पहुंचे तब भी उनकी सेना में अयोध्या के प्रशिक्षित सैनिक नहीं थे जिन्होंने एक समय देवताओं के पक्ष में असुरों के विरुद्ध युद्ध किया था और विजय प्राप्त किया था | श्री राम की सेना में वनवासी जातियों के लोग ही थे, जो काफी हद तक श्रीराम जी के द्वारा ही प्रशिक्षित थे | रावण ने लूट-पाट और छल-कपट से बहुत सारा धन एकत्र करके रखा था जिसका प्रयोग वह अपनी सामरिक शक्ति को बढाने और भोग-विलास में करता था | रावण पर विजय के बाद भी श्री राम ने लंका की जनता को अपना दास नहीं बनाया और रावण के भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया | विधवा-पुनर्विवाह का उदाहरण रखते हुए श्री राम ने रावण वध के बाद रावण की पत्नी मंदोदरी का विवाह विभीषण से करवा दिया जिसको मंदोदरी ने भी सहृदय स्वीकृति दी | इस प्रकार श्री राम ने कई क्रांतिकारी कदम उठाये | जिनकी व्याख्या में कई पुस्तके लिखी जा सकती है | और इस आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि श्री राम जी ने समाज की धारा को परिवर्तित करने की चेष्टा की थी लेकिन उनका उद्देश्य सुधारवादी था | इसप्रकार उस समय के अनुसार उन्होंने एक वामपंथी कदम ही उठाया था | उन्होंने उस समय के शुद्र मजदूर वर्ग, ग्रामवासियों और वनवासियों को एकत्र ही किया था परन्तु किसी राजसत्ता पर अधिकार करने के लिए नहीं अपितु जन-कल्याणार्थ | 


परन्तु ! वर्तमान में जो वामपंथ हमारे देश भारत में है वह ‘श्रीराम’ विरोधी है | देवी-दुर्गा जी द्वारा महिषासुर-वध एक क्रांतिकारी घटना और नारीशक्ति का परिचायक है | परन्तु वामपंथियों के लिए रावण और महिषासुर ही भगवान् हैं | देश के वामपंथियों को समलैंगिकता बड़ी नीतियुक्त और प्राकृतिक लगती है | शौच करने के लिए शौचालय अनिवार्य है, लेकिन वामपंथियों को लिंगवृति (sexual act) के लिए खुली छूट चाहिए | वर्तमान वामपंथी(कम्युनिस्ट) पूंजीवाद का विरोध करने के स्थान पर पूंजीपति बनने में लगा है और राजनैतिक सत्ता को हंथियाना ही उसका उद्देश्य नजर आता है | और इसके लिए वो छल-कपट और हिंसा का पूरा सहारा लेते हैं | विश्व के जिन देशों में कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी है, वहां भी अभी तक पूँजीवाद समाप्त नहीं हो पाया | मजदूर और गरीब वर्ग अभी भी वैसे ही अस्तित्व में बना हुआ है | कई लोग अभी भी अत्याचार, शोषण और असुविधा के शिकार हो रहे हैं, बस परिवेश बदल रहे हैं | ऐसे में प्रश्न उठ जाता है कि कार्ल मार्क्स का समाजवाद और समानता का अधिकार कहाँ खो गया ?

--मनीष देव

Sunday, 29 October 2017

घर का भेदी- विभीषण का धर्म और राजनीति



घर का भेदी - विभीषण का धर्म और राजनीति




“घर का भेदी लंका ढाहे” यह लोकोक्ति अथवा “जुमला” श्री राम भक्त विभीषण के लिए कहा जाता है | आज वर्तमान राजनीति में जब एक नेता जो नेतृत्व के मर्म को नहीं जानता समझता और व्यापारिक मानसिकता से नेतृत्व करने का बोझ उठा लेता है तब अनेको दुराग्रहों के वशीभूत वह दल परिवर्तन करने का बहुत बड़ा साहस करता है | और जैसे ही वह यह कदम उठाता है तभी हमारे देश के माननीय पत्रकार समूह उस तथाकथित दुराग्रहों से ग्रसित नेता जी को यह उपाधि दे देते हैं – “घर का भेदी लंका ढाहे” | लेकिन साथ ही वो विपरीत त्याग किये हुए दल को लंका की उपाधि भी दे देते हैं | लेकिन ज्यादा तर पत्रकार-जाती के लोग “घर के भेदी” की ही आलोचना करते हैं | दूसरी तरफ लगता है ‘लंका’ तो उनके लिए आदर्श है | लेकिन मैं आपका ध्यान इस तथ्य की और आकर्षित करना चाहता हूँ, कि यह जुमला “घर का भेदी लंका ढाहे” का सम्बन्ध श्री राम-भक्त विभीषण जी से कितना और आज के व्यापारी एवं पूँजीवादी मानसिकता वाले नेताओं से कितना है | पत्रकार-जाती के लोग वही लिखेंगे छापेंगे और दिखाएँगे जिसके लिए वो निधिबन्धित होते हैं | यधपि सारे पत्रकार एक जैसे नहीं होते कई क्रांतिकारी विचारधाराओं के भी होते हैं, तभी क्रांतियाँ आती हैं | 




“घर का भेदी लंका ढाहे” यह जुमला लिखने वाला अगर कहीं मिल जाए तो एक बार उससे शास्त्रार्थ जरूर हो जाएगा | क्योंकि कौन व्यक्ति अपने घर को लंका बोलेगा, और जो लंका का अभिप्राय बन चुका है, उसको तो ढाह ही देना चाहिए | वैसे कथा कहानियों में इस जुमले का प्रयोग बहुत होता है | आज कल रिलीज होने वाले फिल्मो में भी यह लोकोक्ति मिल जाती है | वास्तविकता में यह लोकोक्ति षड़यंत्रकारियों के लिए प्रयोग होता है; लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि, क्या रामायण के एक चरित्र राम भक्त विभीषण जिनको इस जुमले के माध्यम से दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है वो षड्यंत्रकारी थे ? जिन ग्रंथों से लंका और विभीषण का परिचय मिलता है आइये उन्ही का अवलोकन करते हैं | 



पुराणों एवं रामायण के कथाओं के अनुसार पुलस्त्य ऋषि के दो पुत्र हुए महर्षि अगस्त्य और विश्रवा | ऋषि विश्रवा ने राक्षस-राज सुमाली और ताड़का की पुत्री कैकसी से विवाह किया और एक विवाह सम्राट त्रिन्बिंदु की पुत्री इलाविडा से किया | महर्षि विश्रवा को कैकसी से तीन पुत्र – रावण, कुम्भकरण, विभीषण और एक पुत्री शूर्पनखा प्राप्त हुई | इल्विडा से कुबेर पुत्र के रूप में प्राप्त हुए जो कि भगवान् शिव और ब्रह्मा के उपासक थे और उनकी कृपा से वो धन के देवता भी कहलाये | कुबेर से असीमित इर्ष्या रखने वाले रावण ने एक बार ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने की ठानी | और अपने बाकी तीनो भाइयों को लोभ लालच देकर तपस्या करने के लिए राजी कर लिया तब रावण, कुम्भकरण और विभीषण ने कठोर तप किया | कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने तीनो से वरदान मांगने के लिए कहा और सर्वप्रथम रावण ने अपनी इक्षा ब्रह्मदेव के समक्ष रखी और बोला – “ हम काहू के मरही न मारे"  अर्थात रावण ने अमरता का वरदान माँगा और कहा मुझे कोई मार ना सके और ना ही मेरी मृत्यु हो | तब ब्रह्मदेव ने कहा कि यह संभव नहीं, जो जन्म लेगा वो मृत्यु को प्राप्त हो ही जाएगा | अतः कुछ और मांग लो! तब रावण ने नर और वानरों को दुर्बल समझ कर उन्ही से मृत्यु प्राप्त होने की मांग रखी | फिर कुम्भकर्ण ने इन्द्रासन के लोभ में निद्रासन मांग लिया और उसे निद्रासन के साथ छः मास में एक बार उठने का वर प्राप्त हुआ | अब बारी थी विभीषण की; जब विभीषण से वरदान मांगने के लिए कहा गया तब विभीषण ने कहा – “तेहि मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ||”(रा०च०मा०) अर्थात मुझे भगवान् के चरणकमलों में निर्मल प्रेम चाहिए, और विभीषण को वही प्राप्त हुआ | अवसर सब को बराबर प्राप्त हुआ लेकिन सब ने अपने मनोभाव के अनुसार वरदान माँगा और समय के अनुसार उसका फल प्राप्त किया |


विभीषण तो प्रारम्भ से ही ईश्वर प्रेमी और सात्विक विचारधारा के थे | सुन्दर काण्ड में जब विभीषण हनुमान जी से मिले तो बोले – “तामस तनु कछु साधन नाही | प्रीति न पद सरोज मन माहि ||” मेरा तामसी शरीर होने से कुछ साधन तो बनता नहीं और प्रभु का प्रेम बस मन में ही रहता है | हे हनुमान जी आप परम भाग्यशाली हैं जो प्रभु के संग रहते हैं | विभीषण कोई रावण के विरूद्ध षड्यंत्र करने बाहर से नहीं आये थे, वो रावण के भाई और जन्म से ही उसके साथ थे और प्रभु प्रेमी थे | विभीषण तो उस कमल-पुष्प के समान थे जो कीचड़ में खिल कर कीचड़ को भी सौन्दर्यवान बना दे | विभीषण ने रावण को विधि पूर्वक समझाते हुए कहा था – “देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही | भजहु राम बिनु हेतु सनेही || सरन गए प्रभु ताहू ना त्यागा | विश्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ||”(रा०च०मा०) अर्थात विभीषण रावण से कहते हैं – “ हे नाथ ! आप सीता जी को वापिस कर दीजिये लंका की लाज भी बचेगी और रक्षा भी हो जायेगी | और श्री राम की शरण में जाइए उन्हें आपके राज्य लंका से कोई मोह नहीं है, वो तो बस अपनी अर्धांगनी देवी सीता को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं | कोई कितना भी पापी क्यूँ न हो श्री राम की शरण में जो जाता है वो उनपर कृपा ही करते हैं |” विभीषण ने रावण को ईतिहास में घटी सारी बातें याद दिलाई और कहा “ मुझे लगता है देवी सीता जैसे आपका काल बन कर ही आई है | हे लंकापति ब्रह्मा जी का वरदान याद करो उन्होंने आपकी मृत्यु नर और वानर के हांथो ही निश्चित किया था | नलकुबेर की पत्नी का श्राप याद करो महाराज ! उसने आपको परस्त्री के साथ बलात-संग करने के प्रयास में भष्म हो जाने का श्राप दिया था | अतः हे नाथ ! हे ज्येष्ठ भ्राता ! आप मेरी बात मान लीजिये, सीता जी को वापिस कर के लंका को विनाश से बचा लीजिये |” लेकिन रावण नहीं माना; वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण ने सैकड़ों विवाह किये थे और उनमें से ज्यादातर राजकुमारियों का अपहरण ही किया था | रावण को कई श्राप एक साथ लग रहे थे, लेकिन दुर्भाग्य-वश रावण ने विभीषण की बात ना मान कर उसे अपमानित करना शुरू कर दिया और भरी सभा में उसे लात मार कर गिरा दिया लेकिन फिर भी विभीषण जी ने रावण के चरण पकड कर कहा – “तात चरण गही राखहु मोर दुलार | सीता देहु राम कहूँ अहित ना होई तुम्हार ||”(रा०च०मा०) – हे तात मैं चरण पकड़ कर भीख माँगता हूँ कि आप सीता जी को वापिस कर दीजिये | इसमें आप का कोई अहित नहीं होगा | लेकिन रावण ने विभीषण को अपमानित करते हुए राज्य और कुल दोनों से बहिष्कृत कर दिया | लंका नगरी में दिखाई देने पर विभीषण के लिए मृत्युदंड की घोषणा कर दी |


विभीषण जी ने विचार किया कि जब मृत्युदंड ही मिलना है तो क्यूँ ना श्री राम के शरण में चले वो भी मुझे रावण का भाई समझ कर निश्चित ही मृत्युदंड देंगे, लेकिन प्रभु के शरण में मृत्यु भी कल्याणकारी होगी | मृत्यु से पहले मुझे प्रभु चरणों के दर्शन प्राप्त हो जायेंगे जिन चरणों का ध्यान निरंतर जानकी जी करती रहती हैं | वो मुझे भी इस जीवन में प्राप्त होंगे ऐसे ही भाव लेकर विभीषण जी भगवान् श्री राम के पास गए | समुद्र उस पार वानर सेना की छावनी थी | विभीषण जी जैसे ही वहां पहुंचे वानरों ने उन्हें बंधी बना लिया और सुग्रीव के समक्ष प्रस्तुत किया | सुग्रीव के पूछ- ताछ में विभीषण ने अपना स्पष्ट परिचय देते हुए कहा, कि मैं रावण का भाई हूँ लेकिन सुग्रीव ने विश्वास नहीं किया और सारी सुचना श्री राम तक पहुंचाई और जैसे विभीषण श्री राम के समक्ष हुए, वैसे ही प्रभु ने उन्हें 'लंकेश' कह कर पुकारा | भाव से विभोर विभीषण ने कहा “हे प्रभु मैं लंकेश नहीं हूँ, मैं तो लंकेश का छोटा भाई हूँ” | तब श्री राम ने कहा विभीषण तुम मेरे लिए लंकेश ही हो | और विजय के बाद तुम्ही लंका की जिम्मेदारी संभालोगे | यधपि अभी युद्ध हुआ भी नहीं था, लेकिन श्री राम ने विभीषण के समक्ष युद्ध-विजय की घोषणा कर दी थी |


अतः रामायण से सम्बंधित सभी प्रसंगों में कहीं यह प्रमाणित नहीं होता कि विभीषण ने रावण के विरुद्ध कोई षड्यंत्र किया हो | विभीषण ने तो अधर्म, अन्याय, अनाचार, व्यभिचार का संग छोड़ कर धर्म और न्याय का साथ दिया | परन्तु वर्तमान परिवेश में सभी षड़यंत्रकारियों और दल-बदलु नेताओं की तुलना “घर का भेदी लंका ढाहे” कहकर विभीषण से कर दी जाती है, जो कि ग्रंथ-प्रमाण के अनुसार अनुचित और अन्याय पूर्ण है |



       - -मनीष देव 


Monday, 23 October 2017

छठ महापर्व - महारहस्य




छठ महापर्व - महारहस्य

कार्तिक मास शुक्ल-पक्ष की षष्ठी तिथि को प्रत्येक वर्ष लाखो श्रध्लुओं के द्वारा मनाया जाने वाला यह त्यौहार 'छठ महापर्व' है | यह सूर्य उपासना का दिन है अतः इसे सूर्यषष्ठी महाव्रत के नाम से जाना जाता है | बिहार झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, और नेपाल के तराई भागों में लोगो को इस पर्व को मनाते हुए पिछले सैकड़ो वर्षों से देखा जा रहा है, लेकिन इसकी प्रसिद्धि एवं इसका पालन भारत के अन्य क्षेत्रों में भी बड़ी तेज़ी से हो रहा है | विशेष कर पश्चिम बंगाल, असम, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली में इसका प्रसार वर्तमान में नजर आता है |

छठ महापर्व में सूर्य देव की पूजा होती है | प्रकृति पूजा, 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' एवं 'सर्वव्यापी ईश्वर' की मान्यता सनातन धर्म का अभिन्न अंग है | सूर्य प्राकृतिक रूप से जीता जागता देवता है | पौराणिक कथाओं के अनुसार यह वही दिन है जब त्रेतायुगावतारी भगवान् सूर्यवंशी श्री राम लंकापति रावण का वध कर के वापिस अयोध्या आये और षष्ठी तिथि को उन्होंने अपने कुलदेवता सूर्य की उपासना एवं पूजा सरयू नदी के जल में आधा खड़े होकर सूर्य देव को अर्घ्य देकर किया था | तब प्रभु ने माता सीता के साथ पहले संध्या के समय अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा की और फिर प्रातः उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हुए पूजन किया | अंग नरेश एवं पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता राजा कर्ण ने भी इस व्रत का पालन किया था और इसी दिन देवराज इन्द्र को अपना कवच और कुंडल दान किया था | अंग प्रदेश वर्तमान में बिहार राज्य में स्थित भागलपुर का क्षेत्र ही माना जाता है | बिहार वासियों के द्वारा बहुत भव्य रूप में छठ पर्व को मनाने के पीछे भी यह कारण बनता है | भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर देवी द्रौपदी ने भी छठ व्रत किया था | देवी कुंती और देवी माद्री ने भी छठ व्रत किया था | स्वयम भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी पूण्यव्रता पत्नी जामवंतपुत्री जामवंती जी के साथ षष्ठी तिथि को विधि पूर्वक इस व्रत का पालन किया था | अस्तगामी एवं उदयमान सूर्य को अर्घ्य देकर संतान के दीर्घायु होने की प्रार्थना की जाती है | उपयुक्त तथ्य पौराणिक कथाओं पर ही आधारित है, परन्तु सूर्य देव हिन्दू समाज में वैदिक काल से सर्वत्र पूजे जाते हैं | वेदों में आदित्य, अर्क, मार्तण्ड और अरुण के नाम से सूर्य देव ही जाने जाते हैं | पंचदेव पूजन में भी सूर्य देव की पूजा होती है |




परन्तु, इस छठ-महापर्व की कुछ रहस्यमयी विशेषताएं भी हैं | इस दिन श्रद्धालुगण छठी मैया की पूजा करते हैं | यह "छठी मैया " का रहस्य क्या है - मैया शब्द माँ के लिए प्रयोग होता है | बिहार राज्य की संस्कृति और वर्तमान परिवेश को देखा जाए तो पता चलता है कि वहां देवी की पूजा विशेष रूप से होती है | हर गाँव में देवी स्थान बनाए जाते हैं और नौ पिंडो की स्थापना होती हैं | बिहार के परिवारों में सबसे छोटी लड़की अथवा छोटी बच्चियों को भी स्नेह से मैया कहकर पुकारा जाता है | परिवार में सबसे छोटी लड़की को माँ का दर्जा दिया जाता है | तो इसी आधार पर कुछ विद्वानों का मानना है कि "छठी मैया " भी स्नेह-भक्ति वश सूर्य देव को ही देवी के रूप में मानने के कारण कहा जाता है या गीतों में गाया जाता है | लेकिन एक पौराणिक कथा के अनुसार स्वयाम्भु मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत थे | उनके नवजात पुत्र  की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर उनपर कृपा करने हेतु ब्रह्मा जी की मानसिक पुत्री एवं प्रकृति के छठे अंग से षष्ठी तिथि को जन्म लेने वाली देवी देवसेना का प्रादुर्भाव हुआ था | तब देवी देवसेना ने राजा प्रियव्रत के पुत्र को जीवित कर दिया था | और छठी मैया के रूप में देवी देवसेना की ही पूजा होती है | एक अन्य मान्यता के अनुसार छठी मैया सूर्य देव की दो पत्नियों का नाम है जो कि उषा और प्रत्युषा के नाम से जानी जाती हैं और सूर्य की किरणों के रूप में संध्या एवं प्रातः काल पृथ्वी पर पहुंचती हैं |

छठ महाव्रत के नियम और आध्यात्मिक महत्व की बात करें तो यह बहुत ही गहरे अर्थ को लिए हुए है | और इसका विशेष समबन्ध स्पष्ट रूप से मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् राम से जुड़ा हुआ है | छठ व्रत चार दिन का होता है - नहाय-खाय, खरना, प्रथम अर्घ्य और द्वितीय अर्घ्य, इस प्रकार से इस चार दिन के व्रत में ३६ घंटे का निर्जला व्रत भी होता है, और बहुत कठिन भी होता है | छठ व्रत करने वालों की सहायता करना भी बहुत बड़ा पुण्य समझा जाता है | इस समय का किया गया दान भी बहुत महत्व रखता है और कुंडली में सूर्य से सम्बंधित समस्याओं का समाधान करता है | 

छठ महापर्व की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस पर्व में प्रथम अस्तगामी सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है और उदयमान सूर्य को बाद में प्रातः समय अर्घ्य अर्पित होता है | वैसे वैदिक सनातन धर्मावलम्बियों में प्रातः ही सूर्य को जल देने के नियम हैं, लेकिन छठ पूजा में प्रथम अस्तगामी सूर्य को अर्घ्य अर्पित होता है | कुछ मान्यताओं के अनुसार अस्तगामी सूर्य की पूजा नहीं होनी चाहिए लेकिन छठ महापर्व की ये विशेषता है कि इस पर्व के नियम में सर्व प्रथम अस्तगामी सूर्य की ही पूजा होती है | यह नियम भी बहुत बड़े रहस्य को लिये हुए है | 
सूर्य का अस्त होना जीवन में दुःख, व्याधि और अपयश का प्रतीक माना जाता है,  और उदयमान सूर्य सौभाग्य और यश का प्रतीक माना जाता है | परन्तु फिर भी छठ महापर्व में अस्तगामी सूर्य की पूजा सर्व प्रथम की जाती है |




किसी कवी ने बड़ा सुन्दर लिखा है - 
"है चक्रवत विधि की गति ऊपर कभी निचे कभी, 
सुख दुःख न रहते सम कभी आते कभी जाते कभी "

मनुष्य को जीवन में आने वाले दुखों से कभी घबराना नहीं चाहिए | क्योंकि काल चक्र का पहिया हमेशा घूमता रहता है | और छठ महापर्व का यह विधान सुख और दुःख दोनों को सामान रूप से समझने की प्रेरणा देता है | जब जीवन में दुःख, व्याधि या अपयश मिले तो भी उसे भगवान् की कृपा ही समझना चाहिए और जब सुख व् यश प्राप्त हो तब भी उनकी कृपा ही है | भगवान् के सच्चे भक्त जीवन के हर अनुभव में उनकी कृपा ही देखते हैं | अतः भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥३८॥

अर्थात हे ! अर्जुन तू सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझता हुआ बिना व्यथित हुए युद्ध कर | वैसे भी इस संसार में सबकुछ परिवर्तनशील ही है | योग-आध्यात्म की वह अवस्था जहां एक साधक-भक्त स्वयं का साक्षात्कार सुख दुःख के परे कर लेता है | यही अनुभूति ही वास्तविक ब्रह्मज्ञान है, यही भावातीत का अनुभव है, यही तुरिया और फिर तुरीयातीत ब्रह्म ज्ञान है | ऐसी अवस्था में साधक जीवन में मिलने वाले सुख एवं दुःख से व्यथित नहीं होता | हठ-योग शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में सात शक्ति केंद्र होते हैं - और इनमें छठा शक्ति केंद्र आज्ञा चक्र और ज्ञान चक्र के नाम से भी जाना जाता है | इस चक्र के जागृति से ही भावातीत जगत का द्वार खुलता है और योगी दिव्य अनुभूतियों को प्राप्त करता है | लेकिन जब तक वह स्वयं जीवन में इसका अनुभव कर सुख दुःख के भाव से मुक्त ना हो जाए तब तक ब्रह्म की अनुभूति उसे नहीं होती |

अतः छठी मैया इस छठे चक्र आज्ञा चक्र की जागृति को ही प्रेरित और सांकेतिक करती हैं | आज्ञा चक्र की जागृति होने पर ही आत्म-स्वरुप दिव्य सूर्य के दर्शन होते हैं | साधक साधना करते हुए आध्यात्मिक विकास को प्राप्त होता है और फिर उसका जीवन सुख दुःख, लाभ हानि, जय पराजय के मोह से मुक्त हो परमानंद की अनुभूति करता है | छठ महापर्व के नियम-विधान, प्रकृति की पूजा एवं सम्मान के साथ चेतना के आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा भी देती है, और सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय एवं यश-अपयश में सर्वदा समभाव रखने की शिक्षा प्रदान करता है |

(लेखक- मनीष देव) 




Sunday, 15 October 2017

धनतेरस का धन




धनतेरस का  धन
|| ॐ धन्वन्तरये नमः ||


धन-त्रयोदशी और धनतेरस का त्यौहार भगवान् धन्वन्तरी को समर्पित है | वैसे धनतेरस के दिन नई वस्तुएं विशेष कर धातु के बने हुए बर्तन अथवा गहने आदि  खरीदने का रिवाज़ है | आज के दिन धन कुबेर की पूजा भी होती है और लोग लक्ष्मी-गणेश जी की प्रतिमा अपने घर में स्थापित करते हैं | भक्त-याचक ईश्वर से धन वृद्धि की याचना भी करते हैं | मानना है कि धनतेरस के दिन गहने, बर्तन आदी धातु की बनी हुई वस्तुओं को खरीदने से  पुरे वर्ष धन का आगमन बना रहता है | कहते हैं जब भगवान् धन्वन्तरी प्रगट हुए तब अपने हाँथ में चांदी का अमृत कलश लेकर प्रगट हुए थे | जिसके कारण धनतेरस के दिन कलश के समान बर्तन खरीदने का प्रचलन शुरू हुआ |

भगवान् धन्वन्तरी

कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के दिन ही भगवान् धन्वन्तरी का अवतरण हुआ था | वो भगवान् विष्णु के ही अवतार माने जाते हैं | अतः इस तिथि को धन्वन्तरी जयंती, धन त्रयोदशी, धनतेरस और राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाया जाता है | महर्षि धन्वन्तरी आयुर्वेद के जनक भी माने जाते हैं  | आयुर्वेद अर्थात चिकित्सा एवं आयु से सम्बंधित विषय | आयुर्वेद कोई धन से सम्बंधित विषय नहीं है | परन्तु धनतेरस के दिन लोगों में धन की पूजा या धन कुबेर की पूजा मात्र धन प्राप्ति की कामना के कारण ही की जाती है | परन्तु धन एकत्र करना कोई धन्वन्तरी का विषय नहीं है | धन्वन्तरी  का विषय तो  आयुर्विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और स्वास्थ्य रक्षा एवं सुधार सम्बन्धी था | फिर इसका सम्बन्ध धन से कैसे बन गया |



अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है :- 

Wealth is lost nothing is lost ; Health is lost something is lost; character is lost everything lost.

अर्थात ! अगर धन गया तो समझो कुछ नहीं गया अगर स्वास्थ्य गया तो कुछ हानि हो गयी ऐसा समझना चाहिए लेकिन अगर चरित्र गया तो समझो कि सब कुछ ही खो गया | यह इस कहावत का अभिप्राय है, परन्तु भारतीय संस्कृति की परम्परागत धारा का अध्ययन करें तो समझ में आता है कि स्वास्थ्य से बढ़कर कुछ नहीं | स्वास्थ्य गया तो फिर धन भी जाएगा और चरित्र भी जाएगा | क्योंकि यहाँ स्वास्थ्य की परिभाषा बहुत विशाल है | स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है और स्वस्थ रहना ही जीवन का उद्देश्य है | अगर हम स्वस्थ नहीं हैं तो हमारे पास कितना भी धन वैभव क्यों न हों , हम उसका आनंद नहीं उठा सकते | और अगर हम स्वस्थ हैं तो बिना धन-वैभव के भी आनंद में रह सकते हैं | क्योंकि सुखी होने के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, सुख तो आत्मा का स्वभाव है | अतः जो आत्म स्थित है अर्थात स्व: स्थित है वही स्वस्थ है | आत्म स्थित योगी पुरुष अपने शरीर पर और मन में चलने वाले विचारों पर पूर्ण नियंत्रण रख पाता है |



जब हमारे शास्त्रों में स्वास्थ्य की चर्चा होती है तो उसका तात्पर्य मात्र शारीरिक दृढ़ता से नहीं होता | मन के स्वस्थ हुए बिना शरीर का स्वस्थ रह पाना संभव नहीं है | और मन ही कर्म की प्रेरणा एवं आधार बनता है और कर्म से चरित्र और आचरण परिभाषित होते हैं, अतः मन का स्वास्थ्य सर्वोपरि है | अतः ईसी कारण से गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में मानस रोगों की चर्चा की है | ये मन के रोग हीं बाद में शरीर के असाध्य रोग बन जाते हैं, जिन्हें हम वर्तमान समय में Psychosomatic disease के नाम से जानते हैं | और फिर मन की यही बीमारियाँ मृत्यु के कारण भी बनाते हैं | अतः स्वस्थ रहना ही सर्वोपरि है, अगर मनुष्य स्वस्थ है तो ना ही उसे धन का नुकसान होगा और ना ही उसे चरित्र की हानि होगी और ना ही जीवन का आनंद ख़त्म होगा | 

भारतीय धर्म-साधना, आयुर्वेद, योग, वेदान्त, ज्योतिष इन सभी शास्त्र-ग्रंथो का एक ही प्रयोजन  है, और वो है सम्पूर्ण स्वास्थ्य को प्राप्त होना | पूर्णरूपेण स्वस्थ होना | परन्तु यह स्वस्थ होने की प्रक्रिया मात्र भोजन एवं खाद्य पदार्थो तक सिमित नहीं है | यह स्वस्थ होने की प्रक्रिया शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, से होते हुए आत्मा तक पहुंचती है | हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व तीन शरीरों से बना हुआ है -  स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर | जब हम तीनो शरीरों से स्वस्थ होंगे तभी हम स्वास्थ्य की सम्पूर्णता का आनंद उठा पायेंगे | अतः स्वस्थ रहने के लिए मात्र खाद्य पदार्थ और भोजन की गुणवत्ता पर ध्यान देने से काम नहीं चलेगा | भोजन के साथ साथ ,मन में चलने वाले विचारों पर भी ध्यान देना होगा |



जैसे अनियंत्रित भोजन करने से शरीर का स्वास्थ्य बिगड़ता है वैसे ही अनियंत्रित विचारों से मन का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है | अत्यधिक भोजन से शरीर का वजन बढ़ता है और शरीर से कोई रचनात्मक कार्य करना संभव नहीं होता वैसे ही बहुत ज्यादा व्यर्थ सोचने से मन की रचनात्मक कार्य क्षमता भी घट जाती है, और कई मानसिक बीमारियाँ भी होने लगती हैं | अतः खाद्य पदार्थों पर ध्यान देने के साथ साथ स्वस्थ रहने के लिए आत्म-अनुसंधान की साधना भी अनिवार्य है |

अतः शारीरिक , मानसिक एवं आध्यात्मिक संतुलन की अवस्था ही सम्पूर्ण स्वास्थ्य है | और यह अवस्था ही परम आनंद की अवस्था और जीवन का सबसे बड़ा धन है | बस हम इस रहस्य को समझ जाएँ तो 'धनतेरस का धन' भी समझ में आ जाएगा |
अतः  दिव्य सृजन समाज के द्वारा समाज के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने एवं वास्तविक स्वास्थ्य को समझने के लिए ही एक अभियान चलाया गया है - SAW (Self Awakening Workshop) अर्थात आत्म जागृति कार्यक्रम | आप इसका लाभ उठाएं और सीखे स्वस्थ जीवन कैसे जिया जाए |


|| ॐ धन्वन्तरये नमः ||

-- मनीष देव जी




Tuesday, 3 October 2017

महारास-शरद पूर्णिमा- ज्ञान विज्ञान




महारास-शरद पूर्णिमा- ज्ञान विज्ञान




भारतीय सनातन संस्कृति ज्ञान विज्ञान से भरपूर है | यह संस्कृति आध्यात्म एवं विज्ञान परक है | इस संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण है- 'प्रकृति का सम्मान' | हमारे ऋषि मुनियों ने अपने अनुसंधान से मानवजाति के लिए बहुत ही अनमोल रत्न देकर गए हैं | पश्चिम देशों की तरह धर्म और विज्ञान का आपसी संघर्ष भारतीय इतिहास में नजर नहीं आता | यहाँ हमारे ऋषि मुनियों ने प्रकृति का सुक्ष्म अध्ययन कर के हमें योग, आयुर्वेद, ज्योतिष जैसी उपयोगी विद्यायें एवं विधान प्रदान किये है | आवश्यकता है, उन्हें सही से जानने और पह्चानाने की | आज आधुनिकता के अंधी दौड़ में कई लोग इस बहुमूल्य मानव कल्याणी ज्ञान-विज्ञान से अनभिज्ञ रह जाते हैं | भारतीय वैदिक परम्परा में मनाये जाने वाले पर्व-त्यौहार के पीछे भी आध्यात्मिक वैज्ञानिक कारण हैं | ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर तिथियों का निर्धारण एवं मनुष्य के जीवन और स्वास्थय पर पड़ने वाले प्रभाव का सूक्ष्म अध्ययन बहुत ही लाभकारी सिद्ध होता है | हमारे ऋषि मुनियों द्वारा प्रदत एक ऐसी ही तिथि है-शरद पूर्णिमा की तिथि जो हमारे जीवन एवं स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है

शरद-पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की रौशनी में औषधीय गुण होता है | ज्योतिष अध्ययन के अनुसार चन्द्रमा वर्ष में सिर्फ एक बार षोडश कलाओं के साथ आकाश में उदित होता है | शरद पूर्णिमा की तिथि में चंद्रमा अन्य दिनों की तुलना पृथ्वी के ज्यादा नजदीक आ जाता है | मध्य रात्री में चंद्रमा के दर्शन से चंद्रमा के चारो और एक वृताकार-घेरा स्पष्ट नजर आती है | शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता बढ़ जाती है | मान्यता है कि स्वयं इस दिन चन्द्रमा से अमृत बरसता है | इस तिथि को सारी रात चंद्रमा के दर्शन हर प्रकार के रोगों में लाभ पहुंचाता है और रोग-रोधक क्षमता को बढ़ा देता है





पौराणिक कथानुसार एक समय ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष ने चंद्रमा को क्षय रोग से ग्रसित होने का श्राप दिया था, जिससे चंद्रमा का अमृत सूखने लगा तब चंद्रमा ने अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न कर फिर से अमृत प्राप्त किया और वह शरद पूर्णिमा की ही शुभ तिथि है;
जिस दिन भगवान् शिव ने चंद्रदेव को सोम अर्थात अमृत प्रदान किया था | भगवान् शिव की इसी लीला और कृपा के कारण उन्हें सोमनाथ कहा जाता है और चन्द्र-देव पर हुई इस महान कृपा के स्मरण में ही प्रथम ज्योतिर्लिंग की स्थापना सोमनाथ के नाम से हुई |




यह वही महान दिन है जिस दिन द्वापर्युगावतार- भगवान् श्री कृष्ण ने यमुना तीरे महा-रास रचा था और अपने प्रेमी गोप-गोपियों को अधरामृत का पान कराया था | कहते हैं - यमुना तीरे शरद पूर्णिमा की श्वेत-रात्री में श्री कृष्ण ने अपने बांसुरी की ऐसी तान छेड़ी कि उसको सुनने वाले उनके प्रेमी भक्त  अपना सुध बुध खो बैठे थे | गोपिया जिस अवस्था में थी वो कृष्ण की ओर भाग पड़ती | कोई गोपी अपने पति के सेवा में थी तो कोई भोजन बना रही थी कोई अपने बच्चों को खिला-पिला रही थी | कोई अभी बालिका ही थी तो कोई तरुणी, कोई युवा तो कोई वृद्धा अवस्था को भी प्राप्त हो चुकी थी | सब बेसुध हो मनमोहन की मोहक बंसी-तान को सुन कर दौड़ पड़ी थी | सब की निद्रा दूर जा चुकी थी, आज स्वयं परमेश्वर प्रेमावतार रूप धारण करके प्रेमामृत से अपने भक्तों को सराबोर करने के लिए उत्सुक नजर आ रहे थे | सांसारिक तामसिक मोह माया की निद्रा तो जैसे छू:मंतर हो गई हो | गोप-गोपियों को सिर्फ श्री कृष्ण का मनमोहक रूप ही नजर आ रहा था | उनके जन्म जन्म की तपस्या एवं भक्ति का फल उन्हें प्राप्त हो रहा था | अतः शरद पूर्णिमा को महारास पूर्णिमा के नाम से भी जानते हैं | इस तिथि को लक्ष्मी पूजा के नाम से भी देश के कई भागो में मनाया जाता है |



भगवान् श्री कृष्ण की इस महान लीला को कई बार कुछ विकृत मानसिकता के लोग वासनात्मक रूप देने का प्रयास करते हैं | कहते हैं, जिसकी जैसी बुद्धि होती है वो वैसी ही सृष्टि कर लेता है, और ऐसे लोग श्रीकृष्ण के अधरामृत पान को गलत ही समझ लेते हैं | अधरामृत से उनका तात्पर्य मात्र अधरों से ही होता है, परन्तु यह अधरा अमृत का अर्थ है "अधरा- अर्थात जो इस धरा का नहीं है " | वह तो चंद्रमा से आने वाला अमृत है, यह तो चंद्रमा का सोमरस है जो शरद पूर्णिमा के दिन बरसता है | और इसी प्राकृतिक लाभ को प्राप्त करने के लिए शरद पूर्णिमा के उजाली रात में प्रेमावतार भगवान् श्री कृष्ण ने महारास की अमृतमयी लीला अपने भक्तो के साथ संपन्न की थी





अतः शरद पूर्णिमा के रात्री में चंद्रमा की रौशनी में बैठना अत्यंत ही कल्याणकारी होता है | यह कई बिमारियो को दूर करता है | इस रात्री में अगर खीर बना कर चंद्रमा की रौशनी में रख दिया जाए तो वह खीर औषधीय गुणों से भरपूर हो जाता है | विशेष कर कफ विकार ( खांसी, नजला, दमा, फेफड़े में टी बी, पुरानी खासी, काली खासी, सर्दी-बुखार, थायरायड)  से होने वाली सारी बीमारियों के लिए राम बाण औषधि है | इन रोगियों को चाहिए कि खीर के साथ पीपल और पीपली का चूर्ण खीर में मिलाकर चंद्रमा की रौशनी में बैठकर मध्यरात्री में खाए | एक बार इस औषधि को नियम पूर्वक खाने से पुरे वर्ष इसका प्रभाव रहता है | लेकिन नियम को किसी जानकार विद्वान अथवा आयुर्वेद के किसी वैध से अवश्य समझ लें  तभी पूरा लाभ प्राप्त होगा |

अतः पाठक गण से आग्रह है कि इस तिथि को ना भूले और इसका पूरा लाभ उठाएं और अन्य सभी को भी प्रेरित करें और हमारे ऋषि मुनियों की इस महान खोज और संस्कृति की महान गाथा को गाएं |

                                                -- मनीष देव (दिव्य सृजन समाज)

                                               

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna-

संत बनने की वासना / sant banane ki vasna- https://youtu.be/lGb7E-LBo14