Friday, 27 December 2019

मानवता सर्वोपरि धर्म - #CAB




मानवता सर्वोपरि धर्म - #CAB



मानवता" यह एक ऐसा शब्द है जो किसी भी सीमा का मोहताज नहीं होता अर्थात मनुष्य का सर्वोपरि धर्म ही मानवता है, इस बात को समझने के लिए की ,धर्म का असली तत्पार्य क्या है? मानवता को मनुष्य जीवन में लागु करलेना और समझ लेना काफी जरूरी है। अगर स्पष्ट और सहज शब्दों में इस बात की पुष्टि की जाए तो :- "मानवता धर्म एक ही सिक्के के दो पहलु हैं।"
मानवता हमें जीवन को संतुलित और सहज तरीके से जीना सिखाती है, साथ ही बंधुत्व और भाईचारे की प्रेरणा को लेकर चलने और खुश रहने की भी शिक्षा देती है, परन्तु यदि कुछ ऐसा हो की कोई धर्म मानवता का ह्रास कर रहा हो या किसी की मान्यताए ही मानवता का संहार करने वाली हो तो उस वक्त मानव होने के नाते कुछ नीतियों का बहिष्कार करना उनपर प्रतिबन्ध लगा देना ही सही कार्य है।
मानवता की भावना वहीँ से जागरूक होनी शुरू हो जाती है, जहाँ से मनुष्य एवं अन्य जीव समुदाय में रहना प्रारम्भ कर देते हैं और तो और मानवता को निभाने के लिए इंसान किसी भी तरह के धर्म, जाती, और समुदाय के दबाव में नहीं है , अगर आज के समाज में देखा जाए तो मानवता के उदाहरण के रूप में भारत किसी भी धर्म का प्रचार या प्रसार नहीं करता यानी हमारा भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है , मगर किसी भी देश में मानव समुदाय सुरक्षित रखने हेतु ये जरूरी है की वहां की मानवता को सर्वप्रथम सुरक्षा दी जाए और साथ ही अगर हम किसी को सुरक्षा, आश्रय, सम्मान देने में सक्षम हो तो उनकी भी मदद करें अन्य शब्दों में यदि कहा जाये तो "मानवता धर्मनिरपेक्षता से भी ऊपर है।
किसी भी  देश में यदि कोई फैसला लेना हो तो मानवता की दृष्टि से ही लिए जाना चाहिए की प्रचलित समाज की नैतिकता का हनन करने वाली दृष्टि से, क्यूंकि जब एक समाज का भी निर्माण होता है तो किसी किसी आधार पर उसमे भिन्नताए होती ही हैं मगर इन सब को पीछे रख हमें अपने नैतिक मूल्यों को साथ में रखकर चलना होता है इसलिए की यही एक तत्व है जो भिन्न होने पर भी हम सबको सूत्रबद्ध रखता है, लेकिन अगर कोई समाज को ही गलत अवधारणाएँ प्रचलित करके उसे तोड़ने की कोशिश करे तो न्याय की दृष्टि से इंसान को इस बात की इजाजत है कि या तो उनकी  "प्रचलित अनैतिक धारणाओं" पर प्रतिबन्ध लगाया जाए या फिर उन्हें समाज से दूर रखा जाये, क्यूंकि धर्म और समाज की नीव ही मानवता है, यही कारन है की समाज में नियम और कानून बनाये जाते है ताकि कोई समाज के बंधुत्व और भाईचारे को चाहकर भी नुकसानना ना पहुंचा सके।
इस बात का इतिहास भी साक्ष्य है की जब-जब किसी मानव वर्ग के पास अधिक शक्ति आई है तब-तब उनके उत्पीड़न से अन्य मानव को कष्ट उठाना पड़ा है ऐसे में यदि संविधान या कानून अगर इन सब बातो को ध्यान में रखकर फैसला लेता है , तो इस  बात में क्या ही त्रुटि हो सकती है? इसी विषय के सन्दर्भ में भारत सरकार द्वारा दिसंबर २०१९ के दिन पार्लियामेंट से "कैब" पास किया गया , जिसके अंतर्गत पकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले गैर मुस्लिम समुदाय को अवैध अप्रवासी नहीं माना जाएगा, परन्तु यहाँ प्रश्न उठता है की "केवल मुस्लिमो को ही क्यों नागरिकता देने का वर्णन किया गया ?" तो इसके पीछे यह कारण है की यह तीन पडोसी देश इस्लामिक घोषित देश हैं अर्थात यहाँ इस्लामिक नागरिक के अलावा अन्य मानव धर्म समुदाय जो अल्पसंख्या में है और इनपर इसी कारण अत्याचार, भेदभाव होता आया है यहाँ तक की स्त्रियों के साथ सामूहिक यौन उत्पीड़न , जबरन मुस्लिम पुरुषो के साथ विवाह कराने जैसे विवाद भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं, औरतों पुरुषो का जबरन धर्म परिवर्तन कराना मानने पर उनकी हत्या कर देना और धार्मिक भेदभाव के आधार पर उन्हें शिक्षा, उच्च पदों में रोजगार पाने जैसे मूल अधिकारों से भी उन्हें वंचित रखा गया है , यदि एक प्रकार से देखा जाए तो उन्हें देश का नागरिक होते हुए भी नागरिक अधिकार से वंचित रखा गया है, क्योंकि यह इस्लामिक घोषित देश हैं अतः यहाँ मुस्लिमो पर कोई अत्याचार, धार्मिक भेदभाव इनके ऊपर तहर्रूश, हलाला जिहाद जैसी सख्त अवधारणाओं को भी नहीं थोपा जाता यही कारण है की आज भारत ने उन समुदाय को भारत लाने का फैसला किया जो की सच में इस बात के हक़दार हैं केवल गैर मुस्लिम शरणार्थी बल्कि वह भी, जो मुस्लिम समुदाय किसी गंभीर कारणवश ३१ मार्च २०१४ तक भारत में शरण ले चुके थे बशर्ते किसी भी प्रकार का "क्रिमिनल बैकग्राउंड" ना हो।
"इंडियन इंटेलिजेंस बेउरो" के अनुसार लगभग ३०,००० अप्रवासी जिनमें से अधिकतर हिन्दू और सिक्ख हैं।
परन्तु यहाँ ध्यान देने योग्य प्रश्न यह है, की क्यों कुछ जनता या समूह "कैब" के विरोध में हैं जबकि यह पूर्ण रूप से मानवता के आधार पर निष्पक्ष कानून है, भारत की जनता में आखिर ये डर क्यों है, की यह किसी की नागरिकता को हानि पहुंचाएगा ? क्यों ऐसा हुआ की जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितो स्त्रियों को प्रताड़ित यौन उत्पीड़ित किया जा रहा था तब आवाज नहीं उठाई गयी ना ही आंदोलन किये गए, क्या वह सब धार्मिक भेदभाव नहीं था? क्या वह सब देश के ह्रदय को आघात नहीं पहुंचाता था?
मशहूर लेखिका डॉ तस्लीमा नसरीन ने भी अपने उपन्यास "लज्जा" में हिन्दू अल्पसंख्यकों का बांग्लादेशियों द्वारा शोषण खसकर स्त्रियों के साथ उनके निंदनीय बर्ताव का वर्णन किया है।
और जब भी कोई उनके जैसे अपनी आवाज उठाने की कोशिश करता है तो बांग्लादेश जैसे देशो में उनके विरोध में फ़तवा जारी कर दिया जाता है, तस्लीमा नसरीन भी खुद इस बात की गवाह हैं जो २५ साल से बांग्लादेश से बाहर रहने पर बाध्य हैं।Image result for taslima nasreen
यहाँ तक की पाकिस्तान भारत के बनने से वर्तमान के आंकड़े भी यह बताते हैं की पाकिस्तान में पहले २८% गैर मुस्लिम थे जो अब घटकर % रह गए हैं बल्कि भारत में % मुस्लिम थे जो अब २७% हो गए हैं अतः यहाँ ऐसा कोई सवाल नहीं उठता की भारत का कानून मुस्लिम समुदाय को आपत्ति पहुंचा रहा हो।
"कैब" केवल उन समुदाय को आश्रय दे रहा है जिनके पास भारत के आलावा कोई विकल्प नहीं है जिससे बहरी लोग जो अवैध अकारण भारत में आकर प्रवास कर रहे हैं उनके स्पष्ट रूप से आंकड़े सामने जाएंगे और यह फायदा होगा की जिन्हे सच में नागरिकता सुविधाएं मि रही हैं उनको वह न्यायसंगत रूप में मुहैया हो सकेगा।
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के अलावा और भी इस्लामिक देश हैं परन्तु "कैब" में केवल इन तीन देशो से आने वाले गैर-मुस्लिम समुदाय पर इसलिए नागरिकता देने पर बल दिया गया है क्योंकि पहले भी इन देशो से गैर-मुस्लिमो को लेकर प्रताड़ना की कई घटनाये सामने आती रही हैं, जैसे पकिस्तान में जबरन गैर मुस्लिमो का धर्म परिवर्तन कराना गैर मुस्लिम लड़कीओ को जबरन अगवाह करके उनसे शादी करना , "आज तक" "न्यूज़ १८ इंडिया" जैसे चैनलों पर भी यह बात सामने चुकी है जब रेनुका कुमारी की एक मुस्लिम लड़के के साथ जबरन शादी कराई गयी, उसके पिता का कहना है की उनकी बेटी २९ अगस्त को कॉलेज गयी थी  उसके बाद वो आज तक घर वापस नहीं पाई
भारत को परेशानी मुस्लिम कौम से नहीं है बल्कि उनके द्वारा धार्मिक नियमो से  है जिसमे कि जिहाद तहर्रूश हलाला जैसे कानून धार्मिक कानून अन्य समुदाय की मानवता को ठेस पहुंचते हैं हम उस घटना को भी नहीं भूल सकते जब आतंकी संगठन लश्कर--इस्लाम  ने पुलवामा में कई जगह पोस्टर लगाए थे जिसमे कहा गया था कि कश्मीरी पंडित या तो घाटी छोड़ दो या मरने कि लिए तैयार हो जाएँ  1990 में कश्मीर में हथियारबंद आन्दोलंन शुरू होने कि बाद लाखों कश्मीरी पंडित कि वहां से पलायन करना पड़ा साथ ही सैकड़ो पंडितों का कत्लेआम भी किया गया Image result for kashmiri pandit violence
1989 में जिहाद के लिए गठित जमात--इस्लामी ने इस्लामिक ड्रेस कोड लागु कर दिया था क्या यह धारणा भेदभाव क्रूरता भरी नहीं हैं भले ही सब मुस्लिम एक से नहीं होते  परन्तु कई बार किसी क्षेत्र विशेष में रहने वाले एक ही समुदाय किसी मानवता को नुकसान पहुंचने वाली धारणा का धर्म के नाम पर विस्तार करना शुरू कर देते हैं जिसके वहां के अलप समुदाय को कष्ट उठाना पड़ता हैं जैसा कि कश्मीर में कश्मीरी पंडितों  के साथ हुआ , 
ड्रेस कोड लागु करने के बाद कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ भाग जाने या मरने के लिए तैयार हो जाने हेतु कहा गया जिसके बाद जस्टिस नील कांत  गंजू की भी गोली  मारकर हत्या कर दी गई उस दिन के अधिकतर गैर मुस्लिम नेताओं की हत्या कर दी गई, सरेआम यौन उत्पीड़न किये गए मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक एक कश्मीरी पंडित नर्स के साथ आतंकियों ने सामूहिक यौन उत्पीड़ित किया किया घाटी में कई कश्मीरी पंडितों की लड़कियों के साथ सामूहिक यौन उत्पीड़न किया अपहरण किए गए।
हालात बदतर हो गए एक स्थानीय उर्दू अख़बार , हिज़्ब -उल - मुजाहिदीन की तरफ से एक प्रेस विज्ञापन जारी किया की सभी हिन्दू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़ चले जाएं। "अल साफा" पत्र ने भी इस समाचार को दोहराया सभी कस्मेरियो को कहा गया की इस्लामिक ड्रेस कोड अपनायें, पंडितो कि घर कि दरवाजे पर नोट लगा दिया की "या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो।"
पकिस्तान की प्रधान मंत्री बेनजीर भुट्टो ने टी वी पर मुस्लिमो को भारत से अलग होने कि लिए भड़काना शुरू करदिया। इस सबके बीच कश्मीरी पंडित रातों रात अपना सबकुछ छोड़ने को मजबूर हो गए, "ज़ी न्यूज़" कि अनुसार वहाँ मस्जिदों में भी स्पीकर पर यह बोलना शुरू करदिया गया की "अपनी बहु बेटियों को कश्मीर छोड़कर चले जाओ नहीं तो मरने कि लिए तैयार रहो।"Image result for kashmiri pandit violence
सिर्फ यह ही नहीं बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में भी १९९२ तक दो लाख बीस हजार हिन्दू थे। परन्तु, आतंकवाद, इस्लामिक कट्टरवाद के खतरे और आर्थिक चुनौतियों किए चलते हिन्दू सिक्ख परिवार अपनी जन्म भूमि को छोड़कर पलायन करने हेतु मजबूर होना पड़ा। सिक्खो और हिन्दुओं की बात करें तो अफ़ग़ान में २२० से भी कम परिवार बचे हैं। "अमर उजाला" पत्रिका में भी बताया गया की अफ़ग़ान में जगतार सिंह नाम के  सिक्ख व्यक्ति पर चाक़ू चलने की कोशिश की गयी "जब जगतार सिंह होनी हर्बल शॉप में बैठे थे तभी एक शख्स आया उनके गले पर चाकू रख दिया, उसने जगतार सिंह को धमकी दी "इस्लाम कबूल करलो वरना गर्दन काट दी जाएगी" आस पास खड़े लोगो ने और दूसरे दुकानदारों ने जगतार सिंह की जान बचाई।"
"नेशनल कॉउन्सिल ऑफ़ हिन्दुस् एंड सिख्स" के चेयरमैन अवतार सिंह के मुताबिक किसी ज़माने में पुरे अफ़ग़ानिस्तान में फैले रहे ये हिन्दू और सिक्ख परिवार अब अफ़ग़ानिस्तान के काबुल, नांगरहार और गजनी में ही रह गए हैं। हिन्दू और सिख समुदाय के लोगो को जबरन धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जा रहा है। ऐसा करने पर उनकी हत्याएं की जा रही हैं।
अफ़ग़ान में धार्मिक भेदभाव धार्मिक असहिष्णुता की वजह से हिन्दू और सिक्ख समुदाय के लोगो में असुरक्षा की भावना घर कर गयी है। यह लोग अफ़ग़ान छोड़ने में ही अपनी भलाई मानते हैं।
अतः यह कानून मानवता समय की आव्यशकता के आधार पर न्यायसंगत है और इससे किसी भी प्रकार का धार्मिक भेदभाव या समुदाय विशेष को खतरा नहीं है, जिस प्रकार से की समाज में भ्रांतियां प्रकट की जा रही हैं।

-सौम्या शर्मा

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