अहिंसावादी
श्री कृष्ण
(मनीष देव)
‘हिंसा’ और ‘अहिंसा’ इस विषय
को लेकर प्रायः हमारे देश में चर्चा चलती रहती है | ‘हिंसा’ क्या है ! और ‘अहिंसा’
क्या है ! हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग, पत्रकार समुदाय, एवं नेतागण अपना-अपना
पक्ष रखने के लिए कभी संविधान तो कभी धर्म का आधार, या फिर बापू महात्मा गांधी,
महात्मा बुद्ध एवं तीर्थंकर महावीर के नाम का आधार लेते रहते हैं | पाश्चात्य
संतों का नाम भी कुछ लोग ले लेते हैं | लेकिन, जब अहिंसा को उपमा देनी हो तो
उन्हें दूर-दूर तक श्री राम और श्री कृष्ण का नाम याद नहीं आएगा | गलती से किसी को
ईस विषय पर भाषण-प्रवचन देते हुए याद भी आ जाए तो वह अपनी बुद्धिजीविता की अस्मिता
को बचाने के लिए श्री राम एवं श्री कृष्ण के नाम को अपने भाषण-प्रवचन में से वैसे
ही निकाल बाहर करता है, जैसे भोजन करते हुए तीखेपन के स्वाद से बचने के लिए
स्वादिष्ट सब्जी में से भी व्यक्ति हरी मिर्च को चुन-चुन कर बाहर निकाल देता है,
लेकिन फिर भी कभी सब्जी में हरी मिर्च डालने का विरोध नहीं करता | प्रश्न करने पर
उत्तर देता है कि हरी मिर्च स्वास्थय-वर्धक एवं आवश्यक है, परन्तु उसके तीखेपन से
बचने के लिए उसे बाहर निकालना पड़ता है, नतीजा ! हमेशा कडवेपन से बचने की यह आदत
उन्हें वैचारिक अथवा राजनैतिक मधुमेह से ग्रसित कर देती है | जिनका यह चर्चित
मधुमेह थोडा कम हो और उनके सामने अहिंसा को परिभाषित करने के लिए मात्र दो विकल्प
श्री राम और श्री कृष्ण का ही दिया जाए तो वह श्री राम को चुन कर श्री कृष्ण को
निकाल बाहर करेंगे, और बोलेंगे “उसने तो जन्म लेते हीं हिंसा शुरू कर दी थी” | तो फिर यह लेख इन वैचारिक अथवा राजनैतिक मधुमेह
से ग्रसित बुद्धिजीवियों के लिए औषधि के रूप में प्रस्तुत है |
आज हम अहिंसावादी श्री कृष्ण
की ही चर्चा करेंगे | वैसे तो योगेश्वर श्री कृष्ण की सम्पूर्ण जीवन-लीला हीं
अहिंसा और प्रेम से भरा है | महाग्रंथ ‘महाभारत’ के महानायक श्री कृष्ण अहिंसा के
आदर्श हैं, और महाभारत स्वयं अहिंसा का ग्रन्थ है | यह सत्य है कि महाभारत में
युद्ध की गाथा है, परन्तु महाभारत का उपदेश अहिंसक है | महाभारत के अनुशाषण-पर्व
में लिखा गया है :-
अहिंसा
परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः | अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ||२३||
अध्याय 115 दानधर्म पर्व |
-अर्थात अहिंसा हीं परम धर्म है और अहिंसा ही परम तप है,
और अहिंसा ही परम सत्य जिससे धर्म की प्रवृति आगे बढती है | महाभारत के अनुशाषन
पर्व के अध्याय 60 में अहिंसा को परिभाषित करते हुए लिखा गया :-
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः| दमस्त्यागो धृति
सत्यं भवत्पवभ्रिताय ते ||18||
- अर्थात, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित
भाग सौंपना, इन्द्रिय संयम, त्याग, धैर्य एवं सत्य पर टिकना पुण्यदायी ही है | यही
अहिंसा की परिभाषा है, और यही योगेश्वर श्री कृष्ण के जीवनलीला-चरित्र में दृष्टिगोचर
होता है |
हिंसा और अहिंसा के भी दो
क्षेत्र हैं, जहां हम इनका मूल्यांकन करते हैं | प्रथम क्षेत्र है ‘व्यक्तिगत’ जहां हमें मन, कर्म एवं वाणी से अहिंसक बनना है, अर्थात
सर्वप्रथम हमारी भावनाएं अहिंसक होनी चाहिए | दुसरा क्षेत्र है- ‘सामाजिक’
जहां पर संविधान, न्याय और निति से अहिंसक होना पड़ता है | श्री कृष्ण दोनों ही
क्षेत्रों में धर्मधुरंधर थे, अर्थात परम अहिंसक थे | अहिंसक संविधान वही हो सकता
है जो हिंसा को बढ़ावा ना दे और साथ हीं हिंसा फैलाने वाले को भी बढ़ावा ना दे |
श्री कृष्ण ने किस प्रकार अहिंसा को चरितार्थ किया आइये इसे समझते हैं |
गोकुल का सारा दूध, दही और
माखन कर के रूप में मथुरा के राजा कंस के पास चला जाता था | उधर कंस की रानियाँ
दूध में नहाती थी और गोकुल के ग्वाल-बाल कुपोषण के शिकार हो रहे थे | तब बाल-कृष्ण
ने एक आनंदित कर देने वाला बाल आन्दोलन चलाया और माखन-चोरी लीला प्रारम्भ कर दी,
जो बिलकुल अहिंसक थी और ग्वाल बालों को उनका हक दिलाती थी | लेकिन इस लीला का परिणाम
यह हुआ कि कंस को गोकुल से मिलने वाले दूध दही में कमी आने लगी और कंस के अत्याचार
बढ़ने लगे | कंस अपने कई हिंसक असुर दूतों को गोकुल वासियों पर अत्याचार करने के
लिए भेजने लगा | तब गोकुल वासियों की रक्षा हेतु श्री कृष्ण ने कुछ हिंसक नरपशुओं
का वध भी किया क्योंकि उनका जीवन हिंसा को ही समर्पित था | फिर श्रीकृष्ण ने हिंसा
से बचने के लिए हीं गोकुल छोड़ वृन्दावन में जाने का निर्णय लिया | सारे गोकुल वासी
कंस के द्वारा फैलाई गयी हिंसा से बचने के लिए ही गोकुल से वृन्दावन पलायन कर जाते
हैं | लेकिन कंस की नजरों से ज्यादा दिन तक नहीं बच पाते | कंस का अत्याचार वहां
भी शुरू हो जाता है | तब तक ग्वाल बाल भी बड़े हो जाते हैं | सब श्री कृष्ण के
नेतृत्व में खड़े होकर कंस से लोहा लेने का निर्णय लेते हैं, तब श्री कृष्ण अपने
मित्रों से यही कहते हैं कि – “युद्ध से कभी कोई लाभ नहीं मिलता कंस का काल ही उसे
एक दिन मारेगा” | और स्वयं कंस ही कृष्ण को मलयुद्ध में बुलाता है, और उसी मलयुद्ध
में श्री कृष्ण के द्वारा कंस वध होता है, और समाज को अभयदान प्राप्त होता है |
कंस वध होते ही कंस के सारे संगी-साथी श्री कृष्ण के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं |
ज़रा संघ और कालयवन दोनों मिलकर मथुरा पर आक्रमण कर देते हैं | तब योगेश्वर श्री
कृष्ण देखते हैं कि अगर यह युद्ध हुआ तो बहुत भयानक हिंसा होगी, मथुरा की निरीह
निरपराध जनता मारी जायेगी | तब श्री कृष्ण
ने देखा कि इस युद्ध का कारण मात्र मैं हूँ, अगर मैं बीच से हट गया तो ये युद्ध टल
जाएगा और हिंसा रुक जायेगी | तब श्री कृष्ण ने मात्र अहिंसा के लिए युद्ध भूमि को
छोड़ा और “रणछोड़” कहलाये और साथ ही युद्ध भी टल गया |
श्री कृष्ण ने द्वारिका
में अपना राज्य स्थापित किया | उधर हस्तिना पुर में ध्रितराष्ट्र का पुत्र
दुर्योधन अपने मामा सकुनी के साथ मिलकर अनेक प्रकार के षड्यंत्र कर रहा था पर-स्त्री
और पर-धन ही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया था | दुर्योधन ने छल-कपट से चौरस के खेल
में पांडवों को हरा कर उन से सब कुछ छीन लिया | और उनकी भार्या द्रौपदी को अपनी
दासी बना लिया और सारी मर्यादाओं को लांघते हुए हिंसक दुर्योधन ने भरी सभा में
द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की आज्ञा दे दी | भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर ध्रितराष्ट्र
सभी उस सभा में बैठे थे, लेकिन दुर्योधन को रोकने में सब असफल हुए | यह भयंकर और
मानवता को कलंकित करने वाली हिंसा हस्तिनापुर के राजसभा में हो रही थी, लेकिन बड़े
बड़े धर्म धुरंधर बैठे हुए थे, परन्तु सब अपने व्यक्तिगत धर्म की रक्षा में लगे हुए थे | और पांडवों ने भी
अहिंसक प्रवृति को ही अपनाया हुआ था | इसके बाद मात्र एक द्युत-क्रीडा के हार और
जीत के आधार पर पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञात-वास की सजा सुनाई
गई, जो कि अन्याय पूर्ण था | अहिंसा का व्रत पालन करने वाले धर्मवीर पांडवों ने
इसे स्वीकार कर लिया | वनवास में भी उनके साथ कई अत्याचार किये गए | 13 वर्षों में
कई बार दुर्योधन ने पांडवों का वध करने का प्रयास किया, लेकिन पांडव श्री कृष्ण की
कृपा से बचते गए | हस्तिनापुर में भीष्म-पितामह, द्रोणाचार्य, विदुर, और
ध्रितराष्ट्र सब ने पांडवों को विश्वास दिलाया था कि 13 वर्ष बाद उनका अधिकार
उन्हें प्राप्त हो जाएगा, परन्तु दुर्योधन इसके लिए तैयार नहीं था | पांडव और श्री
कृष्ण युद्ध की विभीषिका को अच्छी तरह समझते थे, इसलिए वो शांतिपूर्ण ढंग से ही अपना
अधिकार मांग रहे थे | लेकिन दुर्योधन बस एक ही रट लगाए हुए था कि युद्ध करो और
अपना अधिकार ले जाओ |
जब दुर्योधन को समझाते हुए सब हार गए तब श्री कृष्ण ने हीं
दुर्योधन को समझाने की जिम्मेदारी ली | तब द्वारिकाधीश श्री कृष्ण एक राजा होते
हुए भी दुर्योधन के समक्ष एक शान्ति दूत बन कर गए | और दुर्योधन से कहा “दुर्योधन
तुम अगर पांडवों को आधा राज्य नहीं देना चाहते तो उन्हें पांच गाँव हीं दे दो, अगर
उसमें भी आपत्ति हो तो पांच गृह ही दे दो, वो उसी में संतोष कर लेंगे |” तब
दुर्योधन ने उत्तर देते हुए कहा “पांच गाँव और पांच गृह तो बहुत दूर की बात है,
अगर सुई के नोक के बराबर भूमि भी चाहिए तो युद्ध के मैदान में आओ और युद्ध लड़ो ! अगर अपने प्राणों की भी रक्षा करनी है तो युद्ध लड़ो |” श्री कृष्ण के बहुत समझाने पर भी दुर्योधन
नहीं माना उल्टा श्री कृष्ण का ही अपमान करते हुए श्री कृष्ण को ही बंधी बनाने की
आज्ञा देदी | तब श्री कृष्ण ने कहा “ठीक
है दुर्योधन ! अब युद्ध के अलावा तुमने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा, अब तो पांडवों को
अपनी आत्म रक्षा हेतु भी युद्ध हीं करना पड़ेगा |”
कई बुद्धिजीवी कहते हैं कि
श्री कृष्ण ने ही महाभारत का युद्ध करवाया, अगर श्री कृष्ण चाहते तो युद्ध रोक
लेते | परन्तु किसको रोकते ! श्री कृष्ण सिर्फ पांडवों को ही युद्ध करने से रोक
सकते थे, अगर पांडव युद्ध नहीं करते तो भी दुर्योधन तो युद्ध करता ही, और पांड्वो
की हत्या के लिए आतुर रह्ता | अगर महाभारत का युद्ध नहीं होता तो क्या परिस्थिति
बनती इस पर भी विचार करना आवश्यक है | सर्व प्रथम, दुर्योधन तो द्रौपदी का सामूहिक
शील-हरण ही करता और फिर पांडवों की हत्या, और फिर पांडव समर्थको की हत्या | और जो
व्यक्ति पर-नारी और पर-धन का हरण करने में विश्वास करता है, वह तो हिंसा, अन्याय
और अनीति का ही प्रसार करेगा | और क्या ! अहिंसक होने का यही तात्पर्य है कि
अत्याचार को सहो और हिंसा करने वाले नरपशुओं को हिंसा करने की पूरी स्वतन्त्रता दे
दो | श्री कृष्ण सामाजिक अहिंसा का अर्थ अच्छे से समझते थे, और समाज के प्रति
जिम्मेदार थे | वह देख चुके थे कि दुर्योधन को रोका नहीं जा सकता, और अच्छा तो यही
होगा कि यह पृथ्वी ऐसे हिंसक लोगो से मुक्त ही हो जाए, तभी धार्मिक एवं
अहिंसावादियों का जीवन इस धरती पर सुरक्षित हो पायेगा |
आज हमारे देश में भी ऐसे कुछ बुद्धिजीवी पत्रकार, लेखक और राजनेता हैं, जो एक वर्ग को अहिंसा का पाठ पढ़ाने में लगे रहते हैं और दुसरे वर्ग के द्वारा किये
गए हिंसा पर टिपण्णी विहीन हो जाते हैं | सत्य तो ये है कि सामाजिक अहिंसा, न्याय
और निति की रक्षा हेतु व्यर्थ ही अपने स्वार्थ के लिए हिंसा करने वालों को
प्रतिबंधित करना ही चाहिए, यही श्री कृष्ण का “अहिंसावाद” है |