इस नए साल में नया क्या ? – कोई नया बवाल !
अभी तो नए पत्ते भी नहीं निकले ! जमी हुई नदिया अभी पिघली भी नहीं ! कोहरे का कोहराम ऐसा कि घर से बाहर निकलना भी दूभर हो रहा है | टोपी से कान बाहर निकलते ही कन्कनाने लगते हैं और दांत कट-कटाने लगते हैं | बहती हुई शीत-लहर जैसे बुजुर्गो के लिए साक्षात यमदूत ही हो | बसंत की पछुआ जो मन मोहती है, वह दो मास पहले प्राण-हरण के लिए आतुर है | कइयो की जठराग्नि ठंडी पड़ रही है | कइयो का दम, दमा के कारण टूट रहा है | कई अनाथ हो रहे हैं तो कई दवाइयों के खर्चे पर अपनी सारी कमाई लूटा रहे हैं |
वृक्षों के पल्लव मुरझाए पड़े हैं, जैसे अवसाद से ग्रसित हों | गेंदे के फूल जैसे मुह लटकाए पड़े है | छोटा सा नन्हा सा बालक बड़ा प्यारा सा है, जो देखता है प्यार से उसके गाल चूम लेता है | चूमते ही बालक रो पड़ता है और उसकी माँ चीख पड़ती ! “हाय ! मेरे लल्ला को ठण्ड लग गयी" | माँ भी डरती है अपने आँखों के तारे को चूमने से, कहीं उसे ठण्ड न लग जाए |
शीतलहर की ठिठुरन ऐसी जैसे सारी दुनिया ठहर गई हो, और फिर उस में नये साल का बवाल | एक जगह जहां बैठ गए वहां से उठने का मन ना करे, और अगर कोई उठा दे तो चिल्ला पड़े “ अरे भाई अभी तो रजाई में गर्मी आई थी और तुमने उठा कर ठंढा कर दिया" | लेखकों का तो और भी बुरा हाल, बेचारा लेखक कंप-कंपाई थरथराई हांथों से लिखे तो कैसे लिखे | काँपता तो आदमी बस दो कारण से है, वो या तो भूतो के भय से या जनवरी के ठंढ से | अरे ! इस ठिठुरन में, ठहरन में और बर्फीली जमाव में ऐसा नया क्या हो गया कि नए साल का बवाल हो रहा है |
कुछ मनचले कुछ बेवडे न बुजुर्गो की इज्जत करते हैं और ना ही नारी का सम्मान | मिल गया एक और बहाना पिने और पिलाने का “ हम तो गम में भी पियेंगे और ख़ुशी में भी” देखते हैं कौन रोकता है | इस ठिठुरन में हड्डी पर ज़रा सी चोट लग जाए तो ऐसा लगता है जैसे जान ही निकल जाए | और नए साल के बवाल पर निरीह - निरपराध बेजुबान जीव जंतुओं पर दाब और कटारे चलती हैं , कुछ उनकी हड्डियां चूस कर अपना ठण्ड मिटाना चाहते हैं | लेकिन हड्डियों का दर्द तब समझ में आये जब खुद की हड्डियों पर प्रहार हो | कितनी भी हड्डियां चूसो लेकिन ‘सरसों की साग’, ‘मक्के/बाजरे दी रोटी’ और ‘मूली के पराठे’ वाली गर्मी नहीं मिलने वाली |
यह कैसा नया साल है ! ना नई हवा है और न नई हरियाली | कोई रातो की नींद खराब कर रहा तो कोई दारु पिकर बवाल कर रहा है | कुछ मनचले नाचने गाने पर उतारू हैं तो उनके दादा दादी के प्राण चलने को तैयार हैं | ये कौन सा नया साल है भाई. ये कैसी संस्कृति है | भारतीय संस्कृति परम्परा में तो कोई भी शुभ कार्य एवं नया कार्य इस समय नहीं होता | इसे खरमास का समय कहा जाता है, और यह मकर संक्रांति (१४ जनवरी) के दिन ही समाप्त होता है | नए साल से तो नई शुरुआत होनी चाहिए और यहाँ तो पूरी प्रकृति ही जडवत हो जाती है | कोई नयापन का एहसास ही नहीं, कोई नई शुरुआत ही नहीं, तो फिर नया साल कैसा ?
पहले पूरी दुनिया में नया साल अप्रैल के महीने में ही मनाया जाता था | पहले अंग्रेजी कलेण्डर में 10 महीने ही होते थे | लेकिन रोम के तानाशाही मुर्ख निरंकुश राजाओं ने दो महीने जुलाई और अगस्त जोड़ दिए और और पहली जनवरी को ठहरी ठिठुरती ठंडी में नया साल मनाना शुरू कर दिया | भारतीय परिपाटी में तो चैत्र मास से ही नव वर्ष का आह्वान होता है | तब सारी प्रकृति नई और हरी भरी हो जाती है | जिन भारतियों को इस अंग्रेजी नये वर्ष में नया जोश आ रहा है | वो कहीं न कही मानसिक-दासता के शिकार हैं, अथवा प्रचलित मुर्खता के प्रभाव एवं भ्रम में हैं | भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिकता एवं आध्यात्मिकता को समझने की आवश्यकता है, फिर सारे भ्रम स्वतः ही दूर हो जायेंगे | अन्यथा पश्चिमी भेड़-चाल में सर्वनाश ही होगा और हो रहा है | हमारा परिवार व् समाज माता पिता एवं बुजुर्गों का सम्मान खो रहा है | “न्यू इयर” जैसे त्योहारों के नाम पर अनाचार, दुराचार एवं व्यभिचार को बढ़ावा मिल रहा है | समय आ गया है कि हम दुनिया को अपनी सांस्कृतिक विरासत का परिचय दें और ज्ञान का आलोक दें |
(मनीष देव)