घर का भेदी - विभीषण का धर्म और राजनीति
“घर का भेदी लंका ढाहे” यह लोकोक्ति अथवा “जुमला” श्री राम भक्त विभीषण के लिए कहा जाता है | आज वर्तमान राजनीति में जब एक नेता जो नेतृत्व के मर्म को नहीं जानता समझता और व्यापारिक मानसिकता से नेतृत्व करने का बोझ उठा लेता है तब अनेको दुराग्रहों के वशीभूत वह दल परिवर्तन करने का बहुत बड़ा साहस करता है | और जैसे ही वह यह कदम उठाता है तभी हमारे देश के माननीय पत्रकार समूह उस तथाकथित दुराग्रहों से ग्रसित नेता जी को यह उपाधि दे देते हैं – “घर का भेदी लंका ढाहे” | लेकिन साथ ही वो विपरीत त्याग किये हुए दल को लंका की उपाधि भी दे देते हैं | लेकिन ज्यादा तर पत्रकार-जाती के लोग “घर के भेदी” की ही आलोचना करते हैं | दूसरी तरफ लगता है ‘लंका’ तो उनके लिए आदर्श है | लेकिन मैं आपका ध्यान इस तथ्य की और आकर्षित करना चाहता हूँ, कि यह जुमला “घर का भेदी लंका ढाहे” का सम्बन्ध श्री राम-भक्त विभीषण जी से कितना और आज के व्यापारी एवं पूँजीवादी मानसिकता वाले नेताओं से कितना है | पत्रकार-जाती के लोग वही लिखेंगे छापेंगे और दिखाएँगे जिसके लिए वो निधिबन्धित होते हैं | यधपि सारे पत्रकार एक जैसे नहीं होते कई क्रांतिकारी विचारधाराओं के भी होते हैं, तभी क्रांतियाँ आती हैं |
“घर का भेदी लंका ढाहे” यह जुमला लिखने वाला अगर कहीं मिल जाए तो एक बार उससे शास्त्रार्थ जरूर हो जाएगा | क्योंकि कौन व्यक्ति अपने घर को लंका बोलेगा, और जो लंका का अभिप्राय बन चुका है, उसको तो ढाह ही देना चाहिए | वैसे कथा कहानियों में इस जुमले का प्रयोग बहुत होता है | आज कल रिलीज होने वाले फिल्मो में भी यह लोकोक्ति मिल जाती है | वास्तविकता में यह लोकोक्ति षड़यंत्रकारियों के लिए प्रयोग होता है; लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि, क्या रामायण के एक चरित्र राम भक्त विभीषण जिनको इस जुमले के माध्यम से दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है वो षड्यंत्रकारी थे ? जिन ग्रंथों से लंका और विभीषण का परिचय मिलता है आइये उन्ही का अवलोकन करते हैं |
पुराणों एवं रामायण के कथाओं के अनुसार पुलस्त्य ऋषि के दो पुत्र हुए महर्षि अगस्त्य और विश्रवा | ऋषि विश्रवा ने राक्षस-राज सुमाली और ताड़का की पुत्री कैकसी से विवाह किया और एक विवाह सम्राट त्रिन्बिंदु की पुत्री इलाविडा से किया | महर्षि विश्रवा को कैकसी से तीन पुत्र – रावण, कुम्भकरण, विभीषण और एक पुत्री शूर्पनखा प्राप्त हुई | इल्विडा से कुबेर पुत्र के रूप में प्राप्त हुए जो कि भगवान् शिव और ब्रह्मा के उपासक थे और उनकी कृपा से वो धन के देवता भी कहलाये | कुबेर से असीमित इर्ष्या रखने वाले रावण ने एक बार ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने की ठानी | और अपने बाकी तीनो भाइयों को लोभ लालच देकर तपस्या करने के लिए राजी कर लिया तब रावण, कुम्भकरण और विभीषण ने कठोर तप किया | कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने तीनो से वरदान मांगने के लिए कहा और सर्वप्रथम रावण ने अपनी इक्षा ब्रह्मदेव के समक्ष रखी और बोला – “ हम काहू के मरही न मारे" अर्थात रावण ने अमरता का वरदान माँगा और कहा मुझे कोई मार ना सके और ना ही मेरी मृत्यु हो | तब ब्रह्मदेव ने कहा कि यह संभव नहीं, जो जन्म लेगा वो मृत्यु को प्राप्त हो ही जाएगा | अतः कुछ और मांग लो! तब रावण ने नर और वानरों को दुर्बल समझ कर उन्ही से मृत्यु प्राप्त होने की मांग रखी | फिर कुम्भकर्ण ने इन्द्रासन के लोभ में निद्रासन मांग लिया और उसे निद्रासन के साथ छः मास में एक बार उठने का वर प्राप्त हुआ | अब बारी थी विभीषण की; जब विभीषण से वरदान मांगने के लिए कहा गया तब विभीषण ने कहा – “तेहि मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ||”(रा०च०मा०) अर्थात मुझे भगवान् के चरणकमलों में निर्मल प्रेम चाहिए, और विभीषण को वही प्राप्त हुआ | अवसर सब को बराबर प्राप्त हुआ लेकिन सब ने अपने मनोभाव के अनुसार वरदान माँगा और समय के अनुसार उसका फल प्राप्त किया |
विभीषण तो प्रारम्भ से ही ईश्वर प्रेमी और सात्विक विचारधारा के थे | सुन्दर काण्ड में जब विभीषण हनुमान जी से मिले तो बोले – “तामस तनु कछु साधन नाही | प्रीति न पद सरोज मन माहि ||” मेरा तामसी शरीर होने से कुछ साधन तो बनता नहीं और प्रभु का प्रेम बस मन में ही रहता है | हे हनुमान जी आप परम भाग्यशाली हैं जो प्रभु के संग रहते हैं | विभीषण कोई रावण के विरूद्ध षड्यंत्र करने बाहर से नहीं आये थे, वो रावण के भाई और जन्म से ही उसके साथ थे और प्रभु प्रेमी थे | विभीषण तो उस कमल-पुष्प के समान थे जो कीचड़ में खिल कर कीचड़ को भी सौन्दर्यवान बना दे | विभीषण ने रावण को विधि पूर्वक समझाते हुए कहा था – “देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही | भजहु राम बिनु हेतु सनेही || सरन गए प्रभु ताहू ना त्यागा | विश्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ||”(रा०च०मा०) अर्थात विभीषण रावण से कहते हैं – “ हे नाथ ! आप सीता जी को वापिस कर दीजिये लंका की लाज भी बचेगी और रक्षा भी हो जायेगी | और श्री राम की शरण में जाइए उन्हें आपके राज्य लंका से कोई मोह नहीं है, वो तो बस अपनी अर्धांगनी देवी सीता को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं | कोई कितना भी पापी क्यूँ न हो श्री राम की शरण में जो जाता है वो उनपर कृपा ही करते हैं |” विभीषण ने रावण को ईतिहास में घटी सारी बातें याद दिलाई और कहा “ मुझे लगता है देवी सीता जैसे आपका काल बन कर ही आई है | हे लंकापति ब्रह्मा जी का वरदान याद करो उन्होंने आपकी मृत्यु नर और वानर के हांथो ही निश्चित किया था | नलकुबेर की पत्नी का श्राप याद करो महाराज ! उसने आपको परस्त्री के साथ बलात-संग करने के प्रयास में भष्म हो जाने का श्राप दिया था | अतः हे नाथ ! हे ज्येष्ठ भ्राता ! आप मेरी बात मान लीजिये, सीता जी को वापिस कर के लंका को विनाश से बचा लीजिये |” लेकिन रावण नहीं माना; वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण ने सैकड़ों विवाह किये थे और उनमें से ज्यादातर राजकुमारियों का अपहरण ही किया था | रावण को कई श्राप एक साथ लग रहे थे, लेकिन दुर्भाग्य-वश रावण ने विभीषण की बात ना मान कर उसे अपमानित करना शुरू कर दिया और भरी सभा में उसे लात मार कर गिरा दिया लेकिन फिर भी विभीषण जी ने रावण के चरण पकड कर कहा – “तात चरण गही राखहु मोर दुलार | सीता देहु राम कहूँ अहित ना होई तुम्हार ||”(रा०च०मा०) – हे तात मैं चरण पकड़ कर भीख माँगता हूँ कि आप सीता जी को वापिस कर दीजिये | इसमें आप का कोई अहित नहीं होगा | लेकिन रावण ने विभीषण को अपमानित करते हुए राज्य और कुल दोनों से बहिष्कृत कर दिया | लंका नगरी में दिखाई देने पर विभीषण के लिए मृत्युदंड की घोषणा कर दी |
विभीषण जी ने विचार किया कि जब मृत्युदंड ही मिलना है तो क्यूँ ना श्री राम के शरण में चले वो भी मुझे रावण का भाई समझ कर निश्चित ही मृत्युदंड देंगे, लेकिन प्रभु के शरण में मृत्यु भी कल्याणकारी होगी | मृत्यु से पहले मुझे प्रभु चरणों के दर्शन प्राप्त हो जायेंगे जिन चरणों का ध्यान निरंतर जानकी जी करती रहती हैं | वो मुझे भी इस जीवन में प्राप्त होंगे ऐसे ही भाव लेकर विभीषण जी भगवान् श्री राम के पास गए | समुद्र उस पार वानर सेना की छावनी थी | विभीषण जी जैसे ही वहां पहुंचे वानरों ने उन्हें बंधी बना लिया और सुग्रीव के समक्ष प्रस्तुत किया | सुग्रीव के पूछ- ताछ में विभीषण ने अपना स्पष्ट परिचय देते हुए कहा, कि मैं रावण का भाई हूँ लेकिन सुग्रीव ने विश्वास नहीं किया और सारी सुचना श्री राम तक पहुंचाई और जैसे विभीषण श्री राम के समक्ष हुए, वैसे ही प्रभु ने उन्हें 'लंकेश' कह कर पुकारा | भाव से विभोर विभीषण ने कहा “हे प्रभु मैं लंकेश नहीं हूँ, मैं तो लंकेश का छोटा भाई हूँ” | तब श्री राम ने कहा विभीषण तुम मेरे लिए लंकेश ही हो | और विजय के बाद तुम्ही लंका की जिम्मेदारी संभालोगे | यधपि अभी युद्ध हुआ भी नहीं था, लेकिन श्री राम ने विभीषण के समक्ष युद्ध-विजय की घोषणा कर दी थी |
अतः रामायण से सम्बंधित सभी प्रसंगों में कहीं यह प्रमाणित नहीं होता कि विभीषण ने रावण के विरुद्ध कोई षड्यंत्र किया हो | विभीषण ने तो अधर्म, अन्याय, अनाचार, व्यभिचार का संग छोड़ कर धर्म और न्याय का साथ दिया | परन्तु वर्तमान परिवेश में सभी षड़यंत्रकारियों और दल-बदलु नेताओं की तुलना “घर का भेदी लंका ढाहे” कहकर विभीषण से कर दी जाती है, जो कि ग्रंथ-प्रमाण के अनुसार अनुचित और अन्याय पूर्ण है |
- -मनीष देव